सूरह अल-बक़रह (सूरह 2)

बिस्मिल्लाह हिर्रहमानिर्रहीम  

(शुरुआत अल्लाह के नाम से, जो बड़ा मेहरबान और निहायत रहम करने वाला है)


1. अलिफ़-ला-म-मीम।


2. ये किताब (क़ुरान) जिसमें कोई शक नहीं, परहेज़गारों के लिए हिदायत है। 


3. जो ग़ैब पर ईमान लाते हैं और नमाज़ क़ायम करते हैं और जो कुछ हमने उनको दिया है उसमें से खर्च करते हैं। 


4. और जो उस पर ईमान लाते हैं जो आपकी तरफ़ नाज़िल किया गया और जो आपसे पहले नाज़िल किया गया और आख़िरत पर यक़ीन रखते हैं।  


5. यही लोग अपने रब की तरफ़ से सही रास्ते पर हैं और यही लोग कामयाब होंगे।  


6. जो लोग काफ़िर हैं, उनके लिए बराबर है कि आप उन्हें डराएं या न डराएं, वो ईमान नहीं लाएंगे।  


7. अल्लाह ने उनके दिलों और कानों पर मुहर लगा दी है और उनकी आंखों पर पर्दा है, और उनके लिए बड़ा अज़ाब है।  


8. और लोगों में ऐसे भी हैं जो कहते हैं, "हम अल्लाह और आख़िरत के दिन पर ईमान लाए," जबकि वास्तव में वे ईमानदार नहीं हैं।  


9. वे अल्लाह और मु़मनिनों को धोखा देने की कोशिश करते हैं, लेकिन वे खुद अपने आप को धोखा दे रहे हैं और समझते नहीं।  


10. उनके दिलों में एक बीमारी है, और अल्लाह ने उनकी बीमारी को बढ़ा दिया है। उनके लिए दर्दनाक अज़ाब है, क्योंकि वे झूठ बोलते थे।  


11. और जब उनसे कहा जाता है, "जाओ, ज़मीन में फैल जाओ," तो कहते हैं, "हम तो सिर्फ़ इबादत करने वाले हैं।"  


12. ध्यान रहे, यही वो लोग हैं जो ज़्यादा ग़ाफिल हैं।  


13. और जब उनसे कहा जाता है, "आप इमान लाएं जैसे लोग इमान लाए हैं," तो कहते हैं, "क्या हम बेवक़ूफ़ों की तरह इमान लाएं?" जबकि दरअसल, यही बेवकूफ़ हैं, लेकिन नहीं जानते।  


14. और जब मुसीबत के समय में उनसे मिलते हैं, तो कहते हैं, "हम आपके साथ हैं," और जब अपने शैतानों के पास जाते हैं, तो कहते हैं, "हम तो आपके साथ हैं।"  


15. अल्लाह उन लोगों के साथ है जो सच्चे हैं।  


16. यही लोग हैं जिनकी दलील सही है और जो अपने रब की तरफ़ से हिदायत पर हैं।  


17. वे अल्लाह की मुहब्बत से मुकर गए और ख़ुद को तोड़ते हैं।  


18. यह लोग बहरहाल गुमराही में हैं।  


19. जब उन पर कोई बात आती है जो उन पर ज़ोरदार होती है, तो उनसे हंसी में अदा करते हैं।  


20. उनका दिल बीमार है, और अल्लाह ने उनकी बीमारी को बढ़ा दिया है।  


21. ऐ लोगों! अपने रब की इबादत करो, जिसने तुम्हें और तुमसे पहले वालों को पैदा किया ताकि तुम परहेज़गार बन सको।  


22. उसी ने तुम्हारे लिए ज़मीन को बिछौना और आसमान को छत बनाया, और तुम्हारी ज़रूरत की हर चीज़ ज़मीन से उतारी।  


23. फिर, अगर तुम सच्चे हो तो अल्लाह के अलावा किसी दूसरी ईश्वर की इबादत कर लो।  


24. और अगर तुम यह नहीं कर सकते, तो उसके पास जा कर अज़ाब का एक टुकड़ा लाओ।  


25. और उन लोगों को जो ईमान लाए और अच्छे अमल किए, खुशखबरी दो कि उनके लिए ऐसे बाग़ात हैं जिनके नीचे नहरें बहती हैं। जब उन्हें वहां से कोई फल खाने को दिया जाएगा, तो कहेंगे, "ये वही है जो हमें पहले दिया गया था," और उन्हें एक जैसा फल दिया जाएगा। और उनके लिए वहां पाक साफ़ बीवियां होंगी और वो हमेशा के लिए उसमें रहेंगे।  


26. अल्लाह इस बात से नहीं शर्माता कि वो किसी मच्छर या उससे भी छोटी किसी चीज़ की मिसाल दे। तो जो लोग ईमान रखते हैं, वे जानते हैं कि ये उनके रब की तरफ से सच्चाई है। और जो लोग इनकार करते हैं, वे कहते हैं, "इस मिसाल से अल्लाह का क्या मतलब है?" अल्लाह इसके जरिए बहुतों को गुमराही में छोड़ देता है और बहुतों को हिदायत देता है। और गुमराह सिर्फ वही होते हैं जो अल्लाह के हुक्म से फिर जाते हैं।  


27. वो लोग जो अल्लाह से किए हुए अहद (वचन) को तोड़ते हैं उसके बाद कि उसे मज़बूत किया गया था, और वो ज़मीन में फसाद करते हैं, वही लोग नुकसान में हैं।  


28. तुम अल्लाह के इनकार कैसे करते हो, जबकि तुम मुर्दा थे और उसने तुम्हें ज़िंदा किया, फिर वो तुम्हें मौत देगा और फिर ज़िंदा करेगा, फिर तुम उसकी तरफ लौटाए जाओगे।  


29. वही है जिसने तुम्हारे लिए ज़मीन की तमाम चीज़ों को पैदा किया, फिर आसमान की तरफ़ मुतवज्जह (ध्यान) किया और उसे सात आसमानों में तक़्सीम किया। और वो हर चीज़ का इल्म रखता है।  


30. और जब तुम्हारे रब ने फ़रिश्तों से कहा, "मैं ज़मीन में एक खलीफ़ा बनाने वाला हूँ," तो उन्होंने कहा, "क्या तू ज़मीन में ऐसे को खलीफ़ा बनाएगा जो उसमें फसाद करेगा और ख़ून बहाएगा, जबकि हम तेरी तस्बीह करते हैं और तेरी पवित्रता बयान करते हैं?" अल्लाह ने कहा, "मैं वह जानता हूँ जो तुम नहीं जानते।"  


31. और उसने आदम (अ.स.) को तमाम चीज़ों के नाम सिखाए, फिर उन्हें फ़रिश्तों के सामने पेश किया और कहा, "मुझे इन चीज़ों के नाम बताओ, अगर तुम सच्चे हो।"  


32. उन्होंने कहा, "पाकी है तेरी! हमें तो सिर्फ़ वही इल्म है जो तूने हमें सिखाया है, बेशक तू ही बड़ा जानने वाला और हिकमत वाला है।"  


33. अल्लाह ने कहा, "ऐ आदम! इन चीज़ों के नाम फ़रिश्तों को बताओ।" फिर जब आदम (अ.स.) ने उन्हें उन चीज़ों के नाम बता दिए, तो अल्लाह ने कहा, "क्या मैंने तुमसे नहीं कहा था कि मैं आसमानों और ज़मीन की छुपी हुई बातों को जानता हूँ और जो कुछ तुम ज़ाहिर करते हो और जो छुपाते हो, उसे भी जानता हूँ?"  


34. और जब हमने फ़रिश्तों से कहा, "आदम को सज्दा करो," तो इब्लीस के सिवा सब ने सज्दा किया। उसने इंकार किया और तकब्बुर (घमंड) किया और वह काफ़िरों में से हो गया।  


35. और हमने कहा, "ऐ आदम! तुम और तुम्हारी बीवी जन्नत में रहो और जहां से चाहो सुकून से खाओ, लेकिन इस दरख़्त के करीब न जाना, वरना तुम ज़ालिमों में से हो जाओगे।"  


36. फिर शैतान ने उनको वहां से फुसला दिया और जिस जगह में वे थे, वहां से उन्हें निकलवा दिया। और हमने कहा, "नीचे उतर जाओ, तुम एक-दूसरे के दुश्मन हो, और तुम्हारे लिए ज़मीन में एक वक्त तक ठिकाना और जीने का सामान है।"  


37. फिर आदम ने अपने रब से कुछ अल्फ़ाज़ सीखे और अल्लाह ने उनकी तौबा क़ुबूल कर ली। बेशक, वह तौबा क़ुबूल करने वाला और रहम करने वाला है।  


38. हमने कहा, "तुम सब यहां से नीचे उतर जाओ। फिर अगर मेरी तरफ से तुम्हें कोई हिदायत आए, तो जो मेरी हिदायत की पैरवी करेंगे, उनके लिए न कोई ख़ौफ होगा और

 न वे ग़मगीन होंगे।"  


39. और जो इनकार करेंगे और हमारी आयतों को झुठलाएंगे, वही लोग जहन्नम में जाएंगे और हमेशा उसमें रहेंगे।  


40. ऐ बनी-इस्राईल! मेरी उन नेमतों को याद करो जो मैंने तुम पर अता कीं और मेरे साथ किए हुए अहद (वचन) को पूरा करो, मैं भी तुम्हारे साथ किए हुए अहद को पूरा करूंगा, और मुझसे ही डरते रहो।  


41. और उस किताब (क़ुरान) पर ईमान लाओ जिसे मैंने नाज़िल किया है, जो उस (तौरात) की तस्दीक़ करती है जो तुम्हारे पास है। और तुम ही सबसे पहले इसे न मानने वाले न बनो, और मेरी आयतों को थोड़ी क़ीमत पर न बेचो, और मुझसे ही डरते रहो।  


42. और हक़ को बातिल के साथ न मिलाओ, और न ही सच को छुपाओ जबकि तुम जानते हो।  


43. और नमाज़ क़ायम करो और ज़कात अदा करो और झुकने वालों के साथ झुको (यानि नमाज़ में)।  


44. क्या तुम लोगों को नेकी का हुक्म देते हो और अपने आपको भूल जाते हो, जबकि तुम किताब पढ़ते हो? क्या तुम समझते नहीं?  


45. और सब्र और नमाज़ से मदद मांगो। और ये बात बेशक बड़ी (मुश्किल) है, मगर उन लोगों के लिए नहीं जो ख़ुश (अल्लाह के सामने झुकने वाले) हैं।  


46. जो समझते हैं कि वे अपने रब से मिलने वाले हैं और वे उसी की तरफ लौटने वाले हैं।  


47. ऐ बनी-इस्राईल! मेरी उस नेमत को याद करो जो मैंने तुम पर अता की, और मैंने तुम्हें तमाम जहानों पर फ़ज़ीलत दी।  


48. और उस दिन से डरो जब कोई शख़्स किसी दूसरे के काम नहीं आएगा, और न उसकी तरफ से कोई सिफ़ारिश क़ुबूल की जाएगी, और न कोई मुआवज़ा लिया जाएगा, और न ही उन्हें कोई मदद मिलेगी।  


49. और याद करो जब हमने तुम्हें फिरऔन की क़ौम से बचाया, जो तुम्हें बुरी सज़ा देते थे। तुम्हारे बेटों को कत्ल करते थे और तुम्हारी औरतों को ज़िंदा रखते थे। और इसमें तुम्हारे रब की तरफ से तुम्हारे लिए बड़ी आज़माइश थी।  


50. और जब हमने तुम्हारे लिए समंदर को फाड़ा, तो तुम्हें बचा लिया और फिरऔन वालों को डुबो दिया, और तुम देख रहे थे।  


51. और जब हमने मूसा (अ.स.) से चालीस रातों का वादा किया, फिर तुमने उसके बाद बछड़े को (माबूद बनाकर) ज़ुल्म किया।  


52. फिर इसके बाद भी हमने तुम्हें मुआफ किया ताकि तुम शुक्र अदा करो।  


53. और जब हमने मूसा (अ.स.) को किताब और फ़र्क़ान अता की ताकि तुम हिदायत पाओ।  


54. और जब मूसा (अ.स.) ने अपनी क़ौम से कहा, "ऐ मेरी क़ौम! तुमने बछड़े को (माबूद बनाकर) ज़ुल्म किया है, तो अपने ख़ालिक के सामने तौबा करो और अपने आपको (तलवार से) क़त्ल करो। ये तुम्हारे ख़ालिक के नज़दीक तुम्हारे लिए बेहतर है। फिर उसने तुम्हारी तौबा क़ुबूल कर ली। बेशक, वह तौबा क़ुबूल करने वाला और रहम करने वाला है।"  


55. और जब तुमने कहा, "ऐ मूसा! हम तुम पर तब तक ईमान नहीं लाएंगे जब तक हम अल्लाह को खुल्लम-खुल्ला न देख लें।" फिर तुम्हें बिजली ने पकड़ लिया, जबकि तुम देख रहे थे।  


56. फिर हमने तुम्हारे मरने के बाद तुम्हें ज़िंदा किया ताकि तुम शुक्र अदा करो।  


57. और हमने तुम पर बादल का साया किया और तुम पर मन्न (मीठा खाने वाला पदार्थ) और सलवा (बटेर) उतारा। (हमने कहा) जो पाक चीज़ें हमने तुम्हें दी हैं, उन्हें खाओ। और उन्होंने हम पर ज़ुल्म नहीं किया, बल्कि वो खुद अपने आप पर ज़ुल्म करते थे।  


58. और जब हमने कहा, "इस बस्ती में दाखिल हो जाओ और जो चाहो उसमें से बेतकल्लुफ़ी से खाओ, और दरवाज़े में सज्दा करते हुए दाखिल हो और कहो, 'हित्ततुन' (हमारी ख़ताएं माफ कर), हम तुम्हारी ख़ताओं को माफ कर देंगे, और नेक काम करने वालों को और ज़्यादा देंगे।"  


59. फिर जो लोग ज़ालिम थे, उन्होंने वो बात बदल दी जो उनसे कही गई थी, तो हमने उनके ज़ुल्म की वजह से उन पर आसमान से अज़ाब उतारा। 


60. और जब मूसा (अ.स.) ने अपनी क़ौम के लिए पानी मांगा, तो हमने कहा, "अपनी लाठी पत्थर पर मारो," तो उसमें से बारह चश्मे फूट निकले। हर क़बीले ने अपना-अपना पानी लेने का मक़ाम पहचान लिया। (हमने कहा) "अल्लाह का दिया हुआ रोज़ी में से खाओ और पियो, और ज़मीन में फसाद न फैलाओ।"  


61. और जब तुमने कहा, "ऐ मूसा! हम एक ही तरह के खाने पर हरगिज़ सब्र न करेंगे, तो अपने रब से हमारे लिए दुआ कर कि वो हमें ज़मीन की पैदा की हुई चीज़ों में से कुछ दे, जैसे सब्ज़ी, ककड़ी, गेंहू, मसूर, और प्याज़।" मूसा (अ.स.) ने कहा, "क्या तुम वह चीज़ लेना चाहते हो जो कमतर है बदले में उस चीज़ के जो बेहतर है? किसी शहर में जाओ, वहां तुम्हारे लिए वह सब मिलेगा जो तुम मांगते हो।" और उन पर ज़िल्लत और मोहताजी थोप दी गई, और वो अल्लाह के ग़ज़ब में गिरफ़्तार हो गए। ये इसलिए हुआ कि वो अल्लाह की आयतों का इंकार करते थे और नबियों को नाहक़ क़त्ल करते थे। ये उनकी नाफरमानी और हद से बढ़ जाने की सज़ा थी।  


62. बेशक जो लोग ईमान लाए, और जो यहूदी हुए, और नसारा (ईसाई) और साबी, जो भी अल्लाह और आख़िरत के दिन पर ईमान लाएगा और नेक अमल करेगा, उनके लिए उनके रब के पास उनका इनाम है। और उन पर न कोई ख़ौफ़ होगा, न वो ग़मगीन होंगे।  


63. और जब हमने तुमसे अहद लिया और तुम्हारे ऊपर तूर (पहाड़) को उठाया (और कहा), "जो हमने तुम्हें दिया है उसे मज़बूती से पकड़ो और जो कुछ उसमें है उसे याद रखो ताकि तुम परहेज़गार बन सको।"  


64. फिर इसके बाद तुम फिर गए, और अगर अल्लाह का फज़्ल और उसकी रहमत तुम पर न होती, तो तुम ज़रूर नुकसान उठाने वालों में से हो जाते।  


65. और बेशक तुम्हें उन लोगों का हाल मालूम है जो तुम में से सब्त (शनिवार) के हुक्म के खिलाफ़ गए थे, तो हमने उन्हें कह दिया, "धुतकारे हुए बंदर बन जाओ।"  


66. और हमने इसे उनके लिए और उनके बाद आने वालों के लिए इबरत बना दिया और परहेज़गारों के लिए नसीहत।  


67. और जब मूसा (अ.स.) ने अपनी क़ौम से कहा, "बेशक अल्लाह तुम्हें हुक्म देता है कि एक गाय ज़िबह करो।" उन्होंने कहा, "क्या तुम हमसे मज़ाक कर रहे हो?" मूसा (अ.स.) ने कहा, "मैं अल्लाह की पनाह मांगता हूँ कि मैं जाहिलों में से हो जाऊं।"  


68. उन्होंने कहा, "अपने रब से दुआ करो कि वह हमें साफ-साफ़ बता दे कि वो गाय कैसी हो?" मूसा (अ.स.) ने कहा, "वह फरमाता है कि वो न बूढ़ी हो और न ही बहुत जवान, बल्कि उसकी उम्र बीच में हो, तो करो जैसा तुम्हें हुक्म दिया गया है।"  


69. उन्होंने कहा, "अपने रब से हमारे लिए दुआ करो कि वह हमें उसका रंग बता दे।" मूसा (अ.स.) ने कहा, "वह फरमाता है कि वो पीले रंग की गाय हो, उसका रंग ऐसा हो कि देखने वालों को ख़ुशी हो।"  


70. उन्होंने कहा, "अपने रब से हमारे लिए दुआ करो कि वह हमें और ज़्यादा साफ-साफ़ बता दे कि वो कैसी हो, बेशक ये गाय हमें मुश्तबह (संदिग्ध) लग रही है, और अगर अल्लाह ने चाहा, तो हम हिदायत पा लेंगे।"  


71. मूसा (अ.स.) ने कहा, "वह फरमाता है कि वो ऐसी गाय हो जो न तो ज़मीन जोतने के लिए काम में लाई जाती हो और न ही खेती में पानी देने के लिए, वह सही-सलामत हो, उसमें कोई दाग़ न हो।" उन्होंने कहा, "अब तुमने सही बात बताई," तो उन्होंने उसे ज़िबह किया, लेकिन वो ये करने वाले न थे।  


72. और जब तुमने एक शख़्स को क़त्ल कर दिया, फिर उसमें एक-दूसरे पर इल्ज़ाम लगाने लगे, और अल्लाह वह चीज़ ज़ाहिर करने वाला था जिसे तुम छुपा रहे थे।  


73. तो हमने कहा, "इस मरे हुए शख़्स को उस गाय के एक हिस्से से मारो," इस तरह अल्लाह मुर्दों को ज़िंदा करता है और तुम्हें अपनी निशानियाँ दिखाता है ताकि तुम समझो।  


74. फिर इसके बाद तुम्हारे दिल सख्त हो गए, तो वो पत्थरों की तरह हो गए या उससे भी ज़्यादा सख्त, और बेशक कुछ पत्थर ऐसे होते हैं जिनसे नहरें फूट निकलती हैं, और कुछ ऐसे होते हैं जो फट जाते हैं और उनमें से पानी निकलता है, और कुछ ऐसे होते हैं जो अल्लाह के ख़ौफ़ से गिर पड़ते हैं, और जो कुछ तुम करते हो, अल्लाह उससे ग़ाफिल नहीं है।  


75. क्या तुम उम्मीद रखते हो कि ये लोग तुम पर ईमान ले आएंगे, जबकि इन में से एक गिरोह ऐसा था जो अल्लाह का कलाम सुनता था, फिर उसे समझने के बाद जान-बूझकर बदल देता था?  


76. और जब वे उन लोगों से मिलते हैं जो ईमान लाए हैं, तो कहते हैं, "हम ईमान लाए हैं," और जब आपस में अकेले होते हैं, तो कहते हैं, "क्या तुम उन्हें वह बातें बताते हो, जो अल्लाह ने तुम्हारे लिए बयान की हैं, ताकि वे तुम्हारे रब के सामने तुम पर हुज्जत करें? क्या तुम समझते नहीं?"  


77. क्या ये लोग नहीं जानते कि अल्लाह वह सब कुछ जानता है, जो वे छुपाते हैं और जो वे ज़ाहिर करते हैं?  


78. और उनमें से कुछ ऐसे हैं जो अनपढ़ हैं, जो किताब को नहीं जानते, सिर्फ़ झूठी तमन्ना करते हैं और सिर्फ़ गुमान पर चलते हैं।  


79. अफ़सोस है उन लोगों पर जो अपने हाथों से किताब लिखते हैं और फिर कहते हैं, "ये अल्लाह की तरफ़ से है," ताकि इसके बदले में थोड़ी क़ीमत ले सकें। अफ़सोस है उन पर जो अपने हाथों से लिखते हैं और अफ़सोस है उस क़ीमत पर जो वे कमाते हैं।  


80. और वे कहते हैं, "हमें तो गिनती के कुछ दिन ही आग छुएगी।" कहो, "क्या तुमने अल्लाह से कोई अहद लिया है कि अल्लाह अपना अहद कभी नहीं तोड़ेगा, या तुम अल्लाह पर वो बात कहते हो, जो तुम नहीं जानते?"  


81. हां, जिसने भी कोई बुराई की और उसकी बुराई ने उसे घेर लिया, ऐसे लोग जहन्नम में जाएंगे और वही हमेशा उसमें रहेंगे।  


82. और जो लोग ईमान लाए और नेक अमल किए, वही जन्नत वाले हैं और वे हमेशा उसमें रहेंगे।  


83. और जब हमने बनी-इस्राईल से अहद लिया कि अल्लाह के सिवा किसी की इबादत न करना, और मां-बाप, रिश्तेदार, यतीमों और मिस्कीनों के साथ अच्छा सुलूक करना, और लोगों से अच्छी बातें करना, और नमाज़ क़ायम करना, और ज़कात अदा करना, फिर तुममें से कुछ ने इसके बाद रूख मोड़ लिया और तुम (अहद से) फिर जाने वाले हो।  


84. और जब हमने तुमसे यह अहद लिया कि आपस में ख़ून न बहाओगे और न ही अपने लोगों को उनके घरों से बाहर निकालोगे, फिर तुमने इसका इक़रार किया और तुम ख़ुद इस बात के गवाह हो।  


85. फिर भी तुम वही लोग हो कि अपने लोगों को क़त्ल करते हो और अपने ही लोगों के एक गिरोह को उनके घरों से निकालते हो, और उनके खिलाफ़ गुनाह और ज़ुल्म में एक-दूसरे का साथ देते हो। और अगर वे तुम्हारे पास क़ैदी बनकर आएं, तो उनकी फिरौती देते हो, जबकि उन्हें निकालना ही तुम्हारे लिए हराम था। तो क्या तुम किताब के कुछ हिस्से को मानते हो और कुछ हिस्से का इंकार करते हो? फिर तुममें से जो ऐसा करते हैं, उनकी सज़ा दुनिया में ज़िल्लत के सिवा और क्या हो सकती है? और क़यामत के दिन उन्हें सख़्त अज़ाब की तरफ़ लौटा दिया जाएगा। और अल्लाह तुम्हारे आमाल से ग़ाफिल नहीं है।  


86. ये लोग वही हैं जिन्होंने आख़िरत के बदले दुनिया की ज़िंदगी ख़रीद ली है, तो न उनका अज़ाब हल्का किया जाएगा और न उन्हें मदद मिलेगी।  


87. और बेशक हमने मूसा (अ.स.) को किताब दी और उसके बाद एक के बाद एक रसूल भेजे। और हमने मरियम के बेटे ईसा (अ.स.) को खुली निशानियाँ दीं और हमने उसे पवित्र रूह (जिब्रील) के ज़रिए ताक़त दी। तो क्या हर बार जब तुम्हारे पास कोई रसूल ऐसा हुक्म लाए जो तुम्हारी ख्वाहिश के खिलाफ़ हो, तुम तकब्बुर करोगे? फिर कुछ को तुमने झुठला दिया और कुछ को क़त्ल किया।  


88. और उन्होंने कहा, "हमारे दिलों पर परदे पड़े हुए हैं।" बल्कि, अल्लाह ने उनके कुफ़्र की वजह से उन पर लानत की है, तो वे बहुत कम ईमान लाते हैं।  


89. और जब उनके पास अल्लाह की तरफ से एक किताब (क़ुरान) आई, जो उस किताब (तौरात) की तस्दीक़ करती है जो उनके पास है, जबकि पहले वे उसी के ज़रिए काफ़िरों पर फ़तह की दुआ मांगा करते थे। फिर जब उनके पास वही चीज़ आई जिसे वे पहचानते थे, तो उन्होंने उसका इंकार कर दिया। तो अल्लाह की लानत हो काफ़िरों पर।  


90. कितनी बुरी है वह चीज़ जिसके बदले उन्होंने अपने आपको बेच दिया, यानी अल्लाह की नाज़िल की हुई किताब का इंकार इस हसद में कि अल्लाह अपने फज़्ल से जिस पर चाहता है, नाज़िल करता है। तो वे ग़ज़ब पर ग़ज़ब के हक़दार हो गए, और काफ़िरों के लिए ज़लील करने वाला अज़ाब है।  


91. और जब उनसे कहा जाता है, "जो कुछ अल्लाह ने नाज़िल किया है उस पर ईमान लाओ," तो वे कहते हैं, "हम उसी पर ईमान लाते हैं जो हम पर नाज़िल किया गया है," और उसके अलावा जो आया है उसका इंकार करते हैं, जबकि वह हक़ है और उस किताब (तौरात) की तस्दीक़ करता है जो उनके पास है। कहो, "अगर तुम ईमान लाने वाले थे, तो इससे पहले अल्लाह के नबियों को क्यों क़त्ल करते थे?"  


92. और बेशक मूसा (अ.स.) तुम्हारे पास खुली निशानियाँ लेकर आए, फिर भी तुमने उनके बाद बछड़े को (माबूद बना कर) ज़ुल्म किया।  


93. और जब हमने तुमसे अहद लिया और तुम्हारे ऊपर तूर (पहाड़) को उठाया, (और कहा) "जो कुछ हमने तुम्हें दिया है उसे मज़बूती से पकड़ो और सुनो," तो उन्होंने कहा, "हमने सुना और नाफरमानी की।" और उनके कुफ्र की वजह से उनके दिलों में बछड़े की मुहब्बत समा गई। (ऐ रसूल) कह दो, "अगर तुम ईमान लाने वाले हो, तो तुम्हारा ईमान तुम्हें बहुत ही बुरा हुक्म देता है।"  


94. कह दो, "अगर अल्लाह के नज़दीक आख़िरत का घर तमाम लोगों को छोड़कर सिर्फ़ तुम्हारे लिए ख़ास है, तो मौत की तमन्ना करो, अगर तुम सच्चे हो।"  


95. लेकिन ये लोग कभी मौत की तमन्ना न करेंगे, क्योंकि उनके आमाल ने उन्हें घेर रखा है। और अल्लाह ज़ालिमों को अच्छी तरह जानता है।  


96. और बेशक तुम इन्हें (यहूदियों को) ज़िंदगी का सबसे ज़्यादा हरीस (लालची) पाओगे, यहां तक कि मुशरिकों से भी ज़्यादा। इनमें से हर शख्स चाहता है कि उसे हज़ार साल की उम्र मिले, जबकि अगर उसे इतनी उम्र मिल भी जाए, तो वह उसे अज़ाब से नहीं बचा सकेगी। और जो कुछ ये कर रहे हैं, अल्लाह उसे देख रहा है।  


97. कह दो, "जो कोई जिब्रील का दुश्मन है, तो उसने यह (क़ुरान) तुम्हारे दिल पर अल्लाह के हुक्म से नाज़िल किया है, जो पिछले (रसूलों) की तस्दीक़ करने वाला है और ईमान वालों के लिए हिदायत और खुशखबरी है।"  


98. जो कोई अल्लाह, उसके फ़रिश्तों, उसके रसूलों, जिब्रील और मीका'ईल का दुश्मन है, तो बेशक अल्लाह काफिरों का दुश्मन है।  


99. और बेशक हमने तुम्हारी तरफ़ साफ़-साफ़ आयतें भेजी हैं और उन आयतों का इंकार सिर्फ़ फ़ासिक़ (नाफरमान) ही करते हैं।  


100. क्या ऐसा नहीं है कि हर बार जब उन्होंने कोई अहद (वचन) किया, तो उनमें से एक गिरोह ने उसे तोड़ दिया? बल्कि उनमें से अधिकतर लोग ईमान नहीं रखते।  


101. और जब उनके पास अल्लाह की तरफ़ से एक रसूल (हज़रत मुहम्मद स.अ.व.) आया, जो उस (किताब) की तस्दीक़ करता है जो उनके पास है, तो इन अहल-ए-किताब के एक गिरोह ने अल्लाह की किताब को ऐसा छोड़ दिया जैसे वे उसे जानते ही नहीं।  


102. और उन्होंने उस चीज़ की पैरवी की जो शैतानों ने सुलैमान (अ.स.) के दौर-ए-हुकूमत में लोगों को सिखाई थी। और सुलैमान (अ.स.) ने कुफ़्र (इंकार) नहीं किया, बल्कि शैतानों ने कुफ़्र किया, और लोगों को जादू सिखाते थे और उस चीज़ को भी जो बाबिल (बाबुल) में दो फ़रिश्तों, हारूत और मारूत पर नाज़िल की गई थी। और वे दोनों (फ़रिश्ते) किसी को (जादू) नहीं सिखाते थे, जब तक ये न कह देते कि "हम सिर्फ़ एक आज़माइश हैं, तो कुफ़्र न करो।" फिर भी लोग उनसे वह चीज़ सीखते जिससे शौहर और बीवी के बीच जुदाई डालते, और वह (अल्लाह के हुक्म के बग़ैर) किसी को कोई नुकसान नहीं पहुंचा सकते थे। और वे लोग वही चीज़ सीखते थे जो उन्हें नुकसान पहुंचाती और नफ़ा (फ़ायदा) न देती। और बेशक उन्होंने जान लिया कि जो कोई इसे ख़रीदेगा, उसके लिए आख़िरत में कोई हिस्सा नहीं। और कितनी बुरी है वह चीज़ जिसके बदले उन्होंने अपने आपको बेचा, काश वे जानते।  


103. और अगर ये लोग ईमान लाते और परहेज़गार बनते, तो अल्लाह की तरफ़ से बेहतर इनाम होता, काश वे जानते।  


104. ऐ ईमान लाने वालो! "राअिना" (हमारी तरफ़ देखो) न कहो, बल्कि "उनज़ुरना" (हम पर नज़र रखो) कहो और सुनते रहो। और काफिरों के लिए दर्दनाक अज़ाब है।  


105. अहल-ए-किताब और मुशरिकों में से जो काफ़िर हैं, ये नहीं चाहते कि तुम पर तुम्हारे रब की तरफ से कोई भलाई नाज़िल हो। और अल्लाह अपनी रहमत के साथ जिसे चाहता है, ख़ास करता है, और अल्लाह बड़े फ़ज़्ल वाला है।  


106. जो आयत भी हम मंसूख (रद्द) करते हैं या भुला देते हैं, तो हम उससे बेहतर या वैसी ही दूसरी लाते हैं। क्या तुम नहीं जानते कि अल्लाह हर चीज़ पर क़ादिर है?  


107. क्या तुम नहीं जानते कि अल्लाह ही के लिए आसमानों और ज़मीन की बादशाहत है, और अल्लाह के सिवा तुम्हारा कोई सरपरस्त और मददगार नहीं है?  


108. क्या तुम अपने रसूल से उसी तरह सवाल करना चाहते हो जैसे इससे पहले मूसा (अ.स.) से सवाल किए गए थे? और जिसने ईमान के बदले कुफ़्र (इंकार) को चुना, तो वह सीधी राह से भटक गया।  


109. बहुत से अहल-ए-किताब, हसद की वजह से, चाहते हैं कि तुम्हारे ईमान लाने के बाद, तुम्हें फिर से काफ़िर बना दें, हालांकि हक़ उनके सामने ज़ाहिर हो चुका है। तो माफ़ कर दो और दरगुज़र करो, यहां तक कि अल्लाह अपना हुक्म भेजे। बेशक अल्लाह हर चीज़ पर क़ादिर है।  


110. और नमाज़ क़ायम करो और ज़कात अदा करो, और जो कुछ भलाई अपने लिए आगे भेजोगे, उसे अल्लाह के पास पाओगे। बेशक, अल्लाह तुम जो कुछ करते हो, उसे देख रहा है।  


111. और वे कहते हैं, "जन्नत में कोई दाखिल नहीं हो सकता, सिवाय इसके कि वह यहूदी या नसारा (ईसाई) हो।" ये उनकी अपनी ख्वाहिशें हैं। कहो, "अगर तुम सच्चे हो, तो अपनी दलील लाओ।"  


112. हां, जिसने अल्लाह के सामने अपना रुख झुका दिया और वह नेक अमल करने वाला हो, उसके लिए उसके रब के पास उसका इनाम है। और उन पर न कोई ख़ौफ़ होगा और न ही वे ग़मगीन होंगे।  


113. यहूदी कहते हैं, "ईसाई किसी सही चीज़ पर नहीं हैं," और ईसाई कहते हैं, "यहूदी किसी सही चीज़ पर नहीं हैं," जबकि वे किताब पढ़ते हैं। इसी तरह उन लोगों ने भी कहा जो इल्म नहीं रखते। तो अल्लाह क़यामत के दिन उनके बीच फैसला करेगा, जिस चीज़ में वे इख़्तिलाफ़ करते थे।  


114. और उस शख्स से बड़ा ज़ालिम कौन हो सकता है जो अल्लाह की मस्जिदों में उसका नाम लेने से रोकता है और उन्हें उजाड़ने की कोशिश करता है? ऐसे लोगों को वहां दाखिल होने का हक़ नहीं, सिवाय इसके कि डरते हुए दाखिल हों। उनके लिए दुनिया में ज़िल्लत है और आख़िरत में बड़ा अज़ाब है।  


115. और मशरिक़ और मगरीब (पूरब और पश्चिम) सब अल्लाह के हैं, तो जिधर भी तुम रुख करो, उधर ही अल्लाह का चेहरा है। बेशक, अल्लाह वुसअत वाला और जानने वाला है।  


116. और वे कहते हैं, "अल्लाह ने औलाद बना ली है।" वह पाक है (इससे)। बल्कि, आसमानों और ज़मीन की तमाम चीज़ें उसकी मिल्कियत हैं। सब उसी के फ़रमाबरदार हैं।  


117. वह आसमानों और ज़मीन का पैदा करने वाला है। जब वह किसी चीज़ का फैसला करता है, तो सिर्फ़ कहता है, "हो जा," और वह चीज़ हो जाती है।  


118. और जिन लोगों के पास इल्म नहीं है, वे कहते हैं, "अल्लाह हमसे बात क्यों नहीं करता या हमारे पास कोई निशानी क्यों नहीं आती?" इसी तरह उनके पहले लोग भी यही बातें कहते थे। उनके दिल मिलते-जुलते हैं। हमने तो यक़ीन रखने वालों के लिए निशानियाँ साफ़ बयान कर दी हैं। 

 

119. बेशक, हमने तुम्हें हक़ के साथ भेजा है, ख़ुशख़बरी देने वाला और डराने वाला बनाकर, और तुमसे जहन्नमियों के बारे में कोई सवाल न किया जाएगा।  


120. और यहूदी और नसारा तुमसे हरगिज़ राज़ी न होंगे, जब तक तुम उनके दीन का इत्बा' (अनुकरण) न कर लो। कह दो, "अल्लाह की हिदायत ही हिदायत है।" और अगर तुमने उनके नफ़्स की ख्वाहिशों की पैरवी की, इसके बाद कि तुम्हारे पास इल्म आ चुका, तो अल्लाह से तुम्हारे लिए न कोई सरपरस्त होगा और न कोई मददगार।  


121. जिन लोगों को हमने किताब दी है, वे उसे इस तरह पढ़ते हैं जैसे पढ़ने का हक़ है। वही लोग उस पर ईमान रखते हैं। और जो इसका इंकार करते हैं, वही नुकसान उठाने वाले हैं।  


122. ऐ बनी-इस्राईल! मेरी वह नेमत याद करो जो मैंने तुम पर की थी, और यह कि मैंने तुम्हें तमाम जहानों पर फज़ीलत दी थी।  


123. और उस दिन से डरो, जब कोई शख्स किसी दूसरे के काम न आ सकेगा और न उससे कोई फ़िदया (बदले की क़ीमत) लिया जाएगा और न उसे कोई सिफारिश फ़ायदा देगी और न ही उन्हें मदद दी जाएगी।  


124. और (वह वक्त याद करो) जब अल्लाह ने इब्राहीम (अ.स.) को कुछ बातों में आज़माया और उन्होंने उन्हें पूरा किया, तो अल्लाह ने कहा, "मैं तुम्हें लोगों का पेशवा बनाऊंगा।" इब्राहीम (अ.स.) ने कहा, "और मेरी औलाद में से भी?" अल्लाह ने कहा, "मेरा अहद ज़ालिमों को नहीं पहुंचेगा।"  


125. और जब हमने इस घर (काबा) को लोगों के लिए मरकज़ (केंद्र) और अम्न (शांति) की जगह बनाया, और (कहा), "इब्राहीम (अ.स.) के मक़ाम को नमाज़ की जगह बनाओ," और हमने इब्राहीम (अ.स.) और इस्माईल (अ.स.) को हुक्म दिया कि "तुम मेरे घर को तवाफ़ (चक्कर लगाने), एतिकाफ़ (ध्यान), रुकू (झुकने) और सज्दा (सिर झुकाने) करने वालों के लिए साफ़ रखो।"  


126. और (वह वक्त याद करो) जब इब्राहीम (अ.स.) ने कहा, "ऐ मेरे रब! इस शहर (मक्का) को अम्न वाली जगह बना दे और इसके रहने वालों को, जो अल्लाह और आख़िरत के दिन पर ईमान लाएं, हर तरह के फल से रिज़्क़ अता कर।" अल्लाह ने कहा, "और जो कुफ़्र करेंगे, मैं उन्हें थोड़ा फ़ायदा दूंगा, फिर मैं उन्हें जहन्नम के अज़ाब की तरफ़ खींच लूंगा, और वह बहुत बुरा ठिकाना है।"  


127. और जब इब्राहीम (अ.स.) और इस्माईल (अ.स.) काबा की बुनियादें उठा रहे थे (तो वे दुआ कर रहे थे), "ऐ हमारे रब! हमसे (ये अमल) क़ुबूल फरमा, बेशक तू ही सुनने वाला और जानने वाला है।  


128. और ऐ हमारे रब! हमें अपना फ़रमाबरदार बना और हमारी औलाद में से भी एक उम्मत (समाज) को अपना फ़रमाबरदार बना, और हमें हमारे इबादत के तरीक़े दिखा और हमारी तौबा क़ुबूल कर। बेशक तू ही तौबा क़ुबूल करने वाला, रहमत वाला है।  


129. और ऐ हमारे रब! उनमें (मुसलमानों में) एक रसूल भेज, जो उन पर तेरी आयतें पढ़े, और उन्हें किताब और हिकमत सिखाए, और उन्हें पाक करे। बेशक, तू ही ग़ालिब और हिकमत वाला है।"  


130. और इब्राहीम (अ.स.) के दीन से वह कौन मुँह मोड़ेगा जिसने अपने आपको बेवक़ूफ़ बना लिया हो? और बेशक हमने उन्हें दुनिया में चुन लिया, और आख़िरत में वह नेक लोगों में से होंगे।  


131. जब उनके रब ने उनसे कहा, "इस्लाम (फ़रमाबरदारी) क़बूल करो," तो उन्होंने कहा, "मैंने सारे जहान के रब की फ़रमाबरदारी क़बूल कर ली।"  


132. और इब्राहीम (अ.स.) ने अपने बेटों को इसी का हुक्म दिया और याक़ूब (अ.स.) ने भी कहा, "ऐ मेरे बेटों! अल्लाह ने तुम्हारे लिए यह दीन पसंद किया है, तो मरना भी तो मुसलमान ही मरना।"  


133. क्या तुम उस वक्त मौजूद थे जब याक़ूब (अ.स.) की मौत का वक्त आया? जब उन्होंने अपने बेटों से कहा, "तुम मेरे बाद किसकी इबादत करोगे?" उन्होंने कहा, "हम उसी एक अल्लाह की इबादत करेंगे, जो आपका और आपके बाप-दादा इब्राहीम, इस्माईल और इस्हाक़ (अ.स.) का माबूद है, और हम उसी के फ़रमाबरदार हैं।"  


134. ये एक उम्मत थी जो गुजर चुकी, जो उन्होंने कमाया वह उनका है, और जो तुम कमाओगे वह तुम्हारा है, और तुमसे उनके बारे में नहीं पूछा जाएगा।  


135. और उन्होंने कहा, "यहूदी या नसारा बन जाओ, तभी हिदायत पाओगे।" कहो, "बल्कि हम इब्राहीम (अ.स.) के दीन पर हैं, जो सीधा था और मुशरिकों में से नहीं था।"  


136. कहो, "हम अल्लाह पर ईमान लाए और उस चीज़ पर भी जो हम पर उतारी गई, और जो इब्राहीम, इस्माईल, इस्हाक़, याक़ूब और अस्बात (याक़ूब की औलाद) पर उतारी गई, और जो मूसा, ईसा (अ.स.) और दूसरे नबियों को उनके रब की तरफ से दी गई। हम उनमें से किसी में फ़र्क नहीं करते, और हम उसी के फ़रमाबरदार हैं।"  


137. अगर वे उसी तरह ईमान लाते हैं, जिस तरह तुम ईमान लाए हो, तो बेशक वे हिदायत पा जाएंगे, और अगर मुँह मोड़ते हैं, तो बस वह इनकार करने वाले हैं। अल्लाह तुम्हें उनके मुकाबले में काफ़ी है, और वही सुनने वाला, जानने वाला है।  


138. (कहो), "अल्लाह का रंग (दीन) और अल्लाह से बेहतर रंग किसका हो सकता है? और हम उसी की इबादत करने वाले हैं।"  


139. कहो, "क्या तुम हमसे अल्लाह के बारे में झगड़ते हो, जबकि वह हमारा और तुम्हारा भी रब है? हमारे आमाल हमारे लिए और तुम्हारे आमाल तुम्हारे लिए हैं, और हम तो उसी के लिए ख़ालिस (फरमाबरदार) हैं।"  


140. क्या तुम कहते हो कि इब्राहीम, इस्माईल, इस्हाक़, याक़ूब और अस्बात यहूदी या नसारा थे? कहो, "क्या तुम ज़्यादा जानते हो या अल्लाह?" और उससे बड़ा ज़ालिम कौन होगा जो अल्लाह की तरफ़ से दी गई शहादत (गवाही) को छिपाए? और अल्लाह तुम्हारे आमाल से बेख़बर नहीं है।  


141. यह एक उम्मत थी जो गुजर चुकी। जो उन्होंने कमाया वह उनका है, और जो तुम कमाओगे वह तुम्हारा है, और तुमसे उनके बारे में नहीं पूछा जाएगा।  


142. कुछ बेवक़ूफ़ लोग कहेंगे, "किस चीज़ ने इन (मुसलमानों) को उनके क़िब्ला से फेर दिया, जिस पर वे थे?" कहो, "मशरिक और मगरीब अल्लाह ही के हैं, वह जिसे चाहता है सीधी राह की हिदायत देता है।"  


143. और इसी तरह हमने तुम्हें एक औसत उम्मत बनाया, ताकि तुम लोगों पर गवाही दो और रसूल (मुहम्मद स.अ.व.) तुम पर गवाह हों। और हमने वह क़िब्ला बनाया, जिस पर तुम थे, ताकि हम जान लें कि कौन रसूल की पैरवी करता है और कौन पीछे हट जाता है। और यह बात बहुत बड़ी थी, मगर उन पर नहीं जो अल्लाह की हिदायत पाए हुए हैं। और अल्लाह तुम्हारे ईमान को ज़ाया नहीं करेगा। बेशक, अल्लाह लोगों के लिए बहुत शफ़क़त वाला, रहमत वाला है।  


144. बेशक, हमने तुम्हें आसमान की तरफ़ बार-बार रुख करते देखा, तो हम तुम्हें उस क़िब्ला की तरफ़ फेर देंगे जिससे तुम राज़ी हो। अब तुम अपना चेहरा मस्जिद-ए-हराम की तरफ़ कर लो, और (ऐ मुसलमानों) तुम जहां कहीं हो, अपने चेहरों को उसी तरफ़ मोड़ो। और बेशक अहल-ए-किताब जानते हैं कि यह हक़ है, उनके रब की तरफ़ से (आया हुआ)। और अल्लाह उनके आमाल से बेख़बर नहीं है।  


145. और तुम अहल-ए-किताब के सामने चाहे जितनी निशानियाँ ले आओ, वे तुम्हारे क़िब्ले की पैरवी न करेंगे, और न तुम उनके क़िब्ले की पैरवी करोगे। और उनमें से कोई किसी दूसरे के क़िब्ले की पैरवी नहीं करेगा। और अगर तुम उनके नफ़्स की ख्वाहिशों के पीछे चले गए, इसके बाद कि तुम्हारे पास इल्म आ चुका, तो फिर बेशक तुम ज़ालिमों में से हो जाओगे।  


146. जिन लोगों को हमने किताब दी है, वे उसे इस तरह पहचानते हैं जैसे वे अपने बेटों को पहचानते हैं। और बेशक, उनमें से कुछ जानबूझकर हक़ को छिपाते हैं।  


147. यह हक़ है जो तुम्हारे रब की तरफ़ से है, इसलिए तुम शक्क करने वालों में से न हो जाना।  


148. हर एक का एक मकसद (रुख) होता है, जिसकी तरफ़ वह मुँह करता है। तो तुम नेकियों की तरफ़ दौड़ो, तुम जहां कहीं हो, अल्लाह तुम सबको जमा करेगा। बेशक, अल्लाह हर चीज़ पर क़ादिर है।  


149. और तुम जहां से भी निकलो, अपना चेहरा मस्जिद-ए-हराम की तरफ़ कर लो। बेशक, यह तुम्हारे रब की तरफ़ से हक़ है। और अल्लाह तुम्हारे आमाल से बेख़बर नहीं है।  


150. और तुम जहां से भी निकलो, अपना चेहरा मस्जिद-ए-हराम की तरफ़ कर लो। और (ऐ मुसलमानों), तुम जहां कहीं हो, अपने चेहरों को उसी तरफ़ कर लो, ताकि लोगों के पास तुम पर कोई दलील न हो, सिवाय उन लोगों के जो उनमें से ज़ालिम हैं। उनसे मत डरो, बल्कि मुझसे डरो, और (यह इसलिए है) ताकि मैं तुम पर अपनी नेमत पूरी करूं और शायद तुम हिदायत पाओ।  


151. जिस तरह हमने तुममें एक रसूल भेजा, जो तुम पर हमारी आयतें पढ़ता है, और तुम्हें पाक करता है, और तुम्हें किताब और हिकमत सिखाता है, और तुम्हें वह बातें सिखाता है, जो तुम नहीं जानते थे।  


152. तो मुझे याद रखो, मैं तुम्हें याद रखूंगा, और मेरा शुक्र करो और नाशुक्रा न बनो।  


153. ऐ ईमान लाने वालों! सब्र और नमाज़ के साथ मदद चाहो। बेशक, अल्लाह सब्र करने वालों के साथ है।  


154. और जो लोग अल्लाह की राह में मारे गए, उन्हें मुर्दा न कहो, बल्कि वे ज़िंदा हैं, मगर तुम (उनकी ज़िंदगी) नहीं समझते।  


155. और हम तुम्हें थोड़ा डर, भूख, माल और जानों के नुकसान और फलों की कमी से ज़रूर आज़माएंगे। और सब्र करने वालों को ख़ुशख़बरी दे दो।  


156. वह लोग कि जब उन पर कोई मुसीबत आती है, तो कहते हैं, "बेशक हम अल्लाह के हैं और उसी की तरफ लौटकर जाने वाले हैं।"  


157. यही वह लोग हैं जिन पर उनके रब की तरफ से दुआएं और रहमत होती हैं, और यही लोग हिदायत पर हैं।  


158. बेशक सफ़ा और मरवा अल्लाह की निशानियों में से हैं, तो जो शख्स घर (काबा) का हज या उमरा करे, उस पर कोई गुनाह नहीं कि वह इन दोनों के बीच चक्कर लगाए। और जो कोई अपनी मर्जी से कोई भलाई करे, तो बेशक अल्लाह क़दरदान और जानने वाला है।  


159. जो लोग हमारी उतारी हुई खुली-खुली निशानियों और हिदायत को छुपाते हैं, इसके बाद कि हमने लोगों के लिए उसे किताब में बयान कर दिया, ऐसे लोगों पर अल्लाह और सब लानत करने वाले लानत करते हैं।  


160. मगर वह लोग जो तौबा कर लें और अपने अमल को सुधार लें और साफ-साफ बयान करें, तो मैं उनकी तौबा क़ुबूल करता हूं। और मैं तौबा क़ुबूल करने वाला और रहमत वाला हूं।  


161. बेशक, जो लोग काफ़िर हो गए और कुफ़्र की हालत में मर गए, उन पर अल्लाह की, फरिश्तों की और तमाम इंसानों की लानत है।  


162. वे हमेशा उसी में रहेंगे, और उन पर से न अज़ाब हल्का किया जाएगा और न ही उन्हें कोई मोहलत दी जाएगी।  


163. और तुम्हारा माबूद (पूज्य) एक ही माबूद है। उसके सिवा कोई माबूद नहीं, वह रहमत वाला और बहुत रहम करने वाला है।  


164. बेशक, आसमानों और ज़मीन के पैदा करने में, रात और दिन के एक-दूसरे के पीछे आने में, उन कश्तियों में जो लोगों को फ़ायदा पहुँचाने वाली चीज़ों के साथ समंदर में चलती हैं, और उस पानी में जिसे अल्लाह ने आसमान से उतारा, फिर उसके ज़रिए ज़मीन को उसके मर जाने के बाद ज़िंदा किया, और उसमें हर तरह के जानवर फैलाए, और हवाओं के बदलने में, और उन बादलों में जो आसमान और ज़मीन के बीच अल्लाह के हुक्म से ठहरे रहते हैं, अक़्ल रखने वालों के लिए बहुत सी निशानियां हैं।  


165. और कुछ लोग ऐसे हैं जो अल्लाह के अलावा दूसरों को उसका बराबर (शरीक) बना लेते हैं, और उनसे अल्लाह जैसी मुहब्बत करते हैं। और जो लोग ईमान लाए, वे अल्लाह से सबसे ज़्यादा मुहब्बत करते हैं। काश! ज़ालिम लोग उस वक्त देख लें, जब वे अज़ाब देखेंगे, कि सारी ताक़त अल्लाह ही के पास है और अल्लाह सख़्त अज़ाब देने वाला है।  


166. उस वक्त, जब वह लोग जिनकी पैरवी की गई थी, अपने पैरवी करने वालों से किनारा कर लेंगे, और वह अज़ाब देखेंगे और उनके आपसी रिश्ते टूट जाएंगे।  


167. और पैरवी करने वाले कहेंगे, "काश! हमें (दुनिया में) एक बार फिर लौटना मिलता, तो हम भी उनसे इसी तरह किनारा कर लेते, जैसे उन्होंने अब हमसे किनारा किया है।" इस तरह अल्लाह उनके आमाल उन्हें दिखाएगा, (जिन पर) वह अफ़सोस करेंगे, और वह कभी जहन्नम से निकलने वाले नहीं हैं।  


168. ऐ लोगों! जो चीज़ें ज़मीन में हलाल और पाकीज़ा हैं, उन्हें खाओ, और शैतान के कदमों की पैरवी न करो। बेशक, वह तुम्हारा खुला दुश्मन है।  


169. वह तुम्हें बुराई और बेहयाई का हुक्म देता है, और अल्लाह के बारे में वह बातें कहने का, जिन्हें तुम नहीं जानते।  

170. और जब उनसे कहा जाता है, "जो अल्लाह ने उतारा है, उसकी पैरवी करो," तो वे कहते हैं, "बल्कि हम तो उस चीज़ की पैरवी करेंगे, जिस पर हमने अपने बाप-दादाओं को पाया है।" क्या (तब भी पैरवी करेंगे) जबकि उनके बाप-दादा न कुछ समझते हों और न हिदायत पाए हों?  


171. और जिन लोगों ने कुफ़्र किया, उनकी मिसाल उस शख्स की तरह है जो ऐसे को पुकारता है, जो पुकार और आवाज़ के सिवा कुछ नहीं सुनता। वे बहरे हैं, गूंगे हैं, अंधे हैं, और (हक़ को) नहीं समझते।  


172. ऐ ईमान लाने वालों! जो पाक चीज़ें हमने तुम्हें दी हैं, उन्हें खाओ, और अल्लाह का शुक्र अदा करो, अगर तुम उसी की इबादत करते हो।  


173. उसने तुम पर सिर्फ़ मुर्दा जानवर, खून, सूअर का गोश्त और वह चीज़ हराम की है, जिस पर अल्लाह के सिवा किसी और का नाम लिया गया हो। फिर जो शख्स मजबूर हो, नाफ़रमानी करने वाला और हद से बढ़ने वाला न हो, उस पर कोई गुनाह नहीं। बेशक, अल्लाह बहुत बख़्शने वाला, रहमत वाला है।  


174. बेशक जो लोग उस चीज़ को छुपाते हैं, जिसे अल्लाह ने किताब में उतारा है, और उसे थोड़े से दामों के बदले बेचते हैं, वह अपने पेटों में आग भर रहे हैं। और क़यामत के दिन अल्लाह न उनसे बात करेगा और न उन्हें पाक करेगा, और उनके लिए दर्दनाक अज़ाब है।  


175. यह वे लोग हैं, जिन्होंने हिदायत के बदले गुमराही और बख्शिश के बदले अज़ाब ख़रीद लिया। तो वह आग के अज़ाब पर कितने सब्र करने वाले हैं!  


176. यह इसलिए कि अल्लाह ने किताब हक़ के साथ उतारी और बेशक, जिन लोगों ने किताब में इख़्तिलाफ़ किया, वे ज़्यादा दूर जा पड़े हैं।  


177. नेकी यही नहीं कि तुम अपने चेहरों को मशरिक़ और मगरीब की तरफ़ मोड़ लो, बल्कि असल नेकी तो यह है कि कोई शख्स अल्लाह, आख़िरत के दिन, फ़रिश्तों, किताबों और नबियों पर ईमान लाए, और अपनी पसंदीदा माल अल्लाह की मुहब्बत में रिश्तेदारों, यतीमों, मसाकीन, मुसाफिरों, मांगने वालों और गुलामों की आज़ादी पर खर्च करे, और नमाज़ क़ायम करे और ज़कात दे, और जब वादा करे, तो उसे पूरा करे, और तंगी, मुसीबत और जंग के वक्त सब्र करने वाले हों। यही वह लोग हैं, जो सच्चे हैं, और यही मुत्तक़ी (परहेज़गार) हैं।  


178. ऐ ईमान लाने वालों! तुम पर क़िसास (ख़ून के बदले ख़ून) फ़र्ज़ किया गया है, (आज़ाद के बदले) आज़ाद, ग़ुलाम के बदले ग़ुलाम, और औरत के बदले औरत। फिर अगर किसी को उसके भाई की तरफ से कुछ माफ़ कर दिया जाए, तो भले तरीके से पीछा करना और अच्छे तरीके से अदा करना (लाज़िम है)। यह तुम्हारे रब की तरफ से एक तरह की आसानी और रहमत है। फिर जो इसके बाद ज़्यादती करे, उसके लिए दर्दनाक अज़ाब है।  


179. और क़िसास में तुम्हारे लिए ज़िंदगी है, ऐ अक़्ल वालों! ताकि तुम बचो।  


180. तुम पर यह फ़र्ज़ किया गया है कि जब तुम में से किसी की मौत का वक्त करीब आ जाए, अगर वह कुछ माल छोड़ जाए, तो वसीयत करे अपने माँ-बाप और करीबियों के लिए भले तरीके से। यह परहेज़गारों के लिए लाज़िमी है।  


181. फिर जो कोई उसे सुनने के बाद बदल दे, तो इसका गुनाह उन्हीं लोगों पर है जो उसे बदलते हैं। बेशक, अल्लाह सब कुछ सुनता और जानता है।  


182. फिर जो वसीयत करने वाले से किसी तरह की बेइंसाफ़ी या गुनाह का अंदेशा करे, और (वारिसों के) दर्मियान सुलह करा दे, तो उस पर कोई गुनाह नहीं। बेशक, अल्लाह बख्शने वाला और रहम करने वाला है।  


183. ऐ ईमान लाने वालों! तुम पर रोज़े फ़र्ज़ किए गए, जिस तरह तुमसे पहले के लोगों पर फ़र्ज़ किए गए थे, ताकि तुम परहेज़गार बनो।  


184. (रोज़े) गिनती के कुछ ही दिनों के हैं, फिर तुम में से जो बीमार हो या सफर में हो, तो वह दूसरे दिनों में गिनती पूरी करे। और जिन लोगों को इसकी ताक़त न हो, उन पर एक मिस्कीन को खाना खिलाना है। फिर जो अपनी ख़ुशी से ज़्यादा भलाई करे, तो यह उसके लिए अच्छा है। और रोज़ा रखना तुम्हारे लिए बेहतर है, अगर तुम जानो।  


185. रमज़ान का महीना वह है जिसमें क़ुरआन नाज़िल किया गया, (जो) इंसानों के लिए हिदायत है, और हिदायत और फ़र्क़ (सही और ग़लत के बीच) की खुली निशानियां हैं। तो तुम में से जो इस महीने को पाए, उसे रोज़ा रखना चाहिए। और जो बीमार हो या सफर में हो, वह दूसरे दिनों में गिनती पूरी करे। अल्लाह तुम्हारे लिए आसानी चाहता है और तुम पर सख़्ती नहीं चाहता, ताकि तुम (रोज़ों की) गिनती पूरी करो और अल्लाह की बड़ाई बयान करो, इस पर कि उसने तुम्हारी हिदायत की, और शायद तुम शुक्र करो।  


186. और जब मेरे बन्दे तुमसे मेरे बारे में पूछें, तो (कह दो कि) मैं क़रीब हूँ। मैं पुकारने वाले की पुकार को सुनता हूँ, जब वह मुझे पुकारता है। तो उन्हें भी मेरी बात माननी चाहिए, और मुझ पर ईमान लाना चाहिए, ताकि वे हिदायत पा सकें।  


187. तुम्हारे लिए रोज़े की रातों में अपनी बीवियों के पास जाना हलाल कर दिया गया है। वे तुम्हारी लिबास हैं, और तुम उनके लिबास हो। अल्लाह ने जाना कि तुम अपने आपसे बेईमानी कर रहे थे, तो उसने तुम्हारी तौबा क़बूल की और तुम्हें माफ़ किया। अब तुम उनके पास जा सकते हो और अल्लाह ने तुम्हारे लिए जो लिखा है, उसे तलाश करो, और खाओ और पियो, यहां तक कि तुम पर सुबह का सफेद धागा रात के काले धागे से अलग होकर साफ़ नज़र आने लगे। फिर रात तक रोज़ा पूरा करो, और जब तुम मस्जिदों में एतेकाफ़ (इबादत के लिए ठहरना) में हो, तो अपनी बीवियों से न मिलो। ये अल्लाह की हदें हैं, तो इनके करीब न जाओ। इस तरह अल्लाह अपनी आयतों को लोगों के लिए बयान करता है, ताकि वे परहेज़गार बनें।  


188. और तुम लोग आपस में एक-दूसरे का माल नाहक़ तरीक़े से न खाओ, और न ही उसे हुक्मरानों तक पहुँचाओ, ताकि तुम जान-बूझकर लोगों के माल में से कुछ हिस्सा गुनाह के साथ खा सको।  


189. लोग तुमसे चांद के बारे में पूछते हैं। कहो, "ये लोगों और हज के वक्त के लिए वक्त बताने का ज़रिया हैं।" और नेकी यह नहीं है कि तुम अपने घरों में पिछले दरवाज़ों से आओ, बल्कि नेकी वह है, जो परहेज़गार बने। और घरों में उनके दरवाज़ों से आओ और अल्लाह से डरो, ताकि तुम कामयाब हो सको।  


190. और अल्लाह की राह में उन लोगों से लड़ो, जो तुमसे लड़ते हैं, और हद से न बढ़ो। बेशक, अल्लाह हद से बढ़ने वालों को पसंद नहीं करता।  


191. और उन्हें मारो जहां कहीं उन्हें पाओ, और उन्हें निकालो जहां से उन्होंने तुम्हें निकाला। और फितना (ज़ुल्म और शिर्क) क़त्ल से भी बड़ा है। और उनसे मस्जिद-ए-हराम के पास न लड़ो, यहां तक कि वे तुमसे वहां लड़ें। फिर अगर वे तुमसे लड़ें, तो उन्हें मारो। यही काफ़िरों की सज़ा है।  


192. फिर अगर वे बाज़ आ जाएं, तो बेशक, अल्लाह बहुत बख्शने वाला और रहम करने वाला है।  


193. और तुम उनसे लड़ते रहो, यहां तक कि फितना खत्म हो जाए और दीन (इबादत) सिर्फ़ अल्लाह के लिए हो जाए। फिर अगर वे बाज़ आ जाएं, तो ज़ालिमों के अलावा किसी पर (किसी तरह की) ज्यादती नहीं की जाती।  


194. हुरमत (इज़्ज़त) वाले महीने के बदले हुरमत वाला महीना है, और हुरमत की चीज़ों में बदला है। तो जो तुम पर ज़ुल्म करे, उसी के बराबर तुम भी उस पर ज़ुल्म करो, और अल्लाह से डरो, और जान लो कि अल्लाह परहेज़गारों के साथ है।  


195. और अल्लाह की राह में खर्च करो और अपने हाथों अपने आप को हलाकत में न डालो, और भलाई करो। बेशक, अल्लाह भलाई करने वालों से मोहब्बत करता है।  


196. और हज और उमरा को अल्लाह के लिए पूरा करो। फिर अगर तुम (रास्ते में) रोक दिए जाओ, तो जो क़ुरबानी मयस्सर हो। और जब तक क़ुरबानी अपने मुक़ाम पर न पहुंच जाए, अपने सर न मुंडाओ। फिर जो तुम में बीमार हो, या उसके सर में कोई तकलीफ हो, तो उसे रोज़े रखने, सदक़ा देने या क़ुरबानी करने से फिद्या (कफ़्फ़ारा) देना होगा। फिर जब तुम महफ़ूज़ रहो, तो जो शख्स उमरा को हज के साथ मिलाए, वह जो क़ुरबानी मयस्सर हो, दे। फिर जिसे न मिले, वह हज के दिनों में तीन रोज़े और अपने घर लौटने पर सात रोज़े (करे), यह दस पूरे हुए। यह उस शख्स के लिए है जिसका घरवाले मस्जिद-ए-हराम के पास न हों। और अल्लाह से डरो और जान लो कि अल्लाह सख़्त अज़ाब देने वाला है।  


197. हज के महीने जाने-पहचाने हैं, तो जो कोई उनमें हज का इरादा करे, वह हज के दौरान न कोई बुरा काम करे, न गुनाह और न लड़ाई-झगड़ा। और जो भलाई तुम करते हो, उसे अल्लाह जानता है। और सफर के लिए सामान लेकर चलो, और सबसे अच्छा सामान परहेज़गारी है। और मुझसे डरते रहो, ऐ अक़्लमंदो!  


198. तुम्हारे लिए कोई गुनाह नहीं कि अपने रब का फज़्ल (रिज़्क़) तलाश करो। फिर जब तुम अरफ़ात से लौटो, तो मशअर-ए-हराम के पास अल्लाह का ज़िक्र करो, और उसका ज़िक्र उसी तरह करो, जिस तरह उसने तुम्हें हिदायत दी है, हालांकि इससे पहले तुम गुमराहों में से थे।  


199. फिर जहां से सब लोग लौटते हैं, वहीं से तुम भी लौटो और अल्लाह से बख्शिश मांगो। बेशक, अल्लाह बख्शने वाला और रहम करने वाला है।  


200. फिर जब तुम अपने हज के अरकान पूरे कर लो, तो अल्लाह का ज़िक्र उसी तरह करो, जिस तरह तुम अपने बाप-दादाओं का ज़िक्र करते हो, बल्कि उससे भी ज्यादा। फिर लोगों में से कुछ ऐसे हैं, जो कहते हैं, "ऐ हमारे रब, हमें दुनिया में दे।" ऐसे लोगों का आख़िरत में कोई हिस्सा नहीं।  


201. और कुछ लोग ऐसे हैं, जो कहते हैं, "ऐ हमारे रब, हमें दुनिया में भलाई दे और आख़िरत में भी भलाई दे और हमें जहन्नम के अज़ाब से बचा।"  


202. यही लोग हैं, जिन्हें उनके किए का हिस्सा मिलेगा, और अल्लाह हिसाब लेने में बहुत तेज़ है।  


203. और गिनती के दिनों में अल्लाह का ज़िक्र करो। फिर जो कोई दो दिन में जल्दी कर ले, उस पर कोई गुनाह नहीं, और जो पीछे रह जाए, उस पर भी कोई गुनाह नहीं, यह उस शख्स के लिए है जो परहेज़गारी करे। और अल्लाह से डरो, और जान लो कि तुम उसी की तरफ़ जमा किए जाओगे।  


204. और कुछ लोग ऐसे हैं जिनकी दुनिया की ज़िंदगी में बात तुम्हें बहुत अच्छी लगती है, और वह अपने दिल की बात पर अल्लाह को गवाह ठहराता है, जबकि वह सबसे ज़्यादा झगड़ालू है।  


205. और जब वह पलटता है, तो धरती में फसाद फैलाने के लिए दौड़ता है, और फ़सल और नस्ल को तबाह करता है, और अल्लाह फसाद को पसंद नहीं करता।  


206. और जब उससे कहा जाता है, "अल्लाह से डरो," तो घमंड उसे गुनाह पर मजबूर कर देता है। ऐसे शख्स के लिए जहन्नम काफी है, और वह बुरा ठिकाना है।  


207. और कुछ लोग ऐसे हैं, जो अल्लाह की रज़ा की तलाश में अपनी जान बेच देते हैं, और अल्लाह अपने बन्दों पर बड़ा मेहरबान है।  


208. ऐ ईमान लाने वालों! तुम सब मिलकर पूरी तरह इस्लाम में दाखिल हो जाओ, और शैतान के कदमों की पैरवी न करो। बेशक, वह तुम्हारा खुला दुश्मन है।  


209. फिर अगर तुम्हारे पास खुली निशानियां आ जाने के बाद भी तुम फिसल जाओ, तो जान लो कि अल्लाह सब पर ग़ालिब और हिकमत वाला है।  


210. क्या वे इस बात का इंतज़ार कर रहे हैं कि अल्लाह और फरिश्ते छांव के बादलों में आ जाएं और काम तमाम कर दिया जाए? और सब कामों की वापसी अल्लाह ही की तरफ है।  


211. बनी इस्राईल से पूछो, हमने उन्हें कितनी साफ़-साफ़ निशानियां दी थीं। और जो कोई अल्लाह की नेमत मिलने के बाद उसे बदल दे, तो बेशक, अल्लाह सख़्त अज़ाब देने वाला है।  


212. दुनिया की ज़िंदगी काफ़िरों के लिए अच्छी कर दी गई है, और वे ईमान लाने वालों का मज़ाक उड़ाते हैं, जबकि परहेज़गार लोग क़यामत के दिन उनसे ऊपर होंगे। और अल्लाह जिसे चाहता है, बेहिसाब रिज़्क़ देता है।  


213. इंसान एक ही उम्मत था, फिर अल्लाह ने नबियों को भेजा, खुशख़बरी देने वाले और डराने वाले बनाकर, और उनके साथ हक़ की किताब उतारी, ताकि वह लोगों के दर्मियान उन बातों में फैसला करें, जिनमें वे इख़्तिलाफ़ कर रहे थे। और उसमें सिर्फ उन्हीं लोगों ने इख़्तिलाफ़ किया, जिन्हें वह किताब दी गई थी, इसके बाद कि उनके पास साफ़-साफ़ निशानियां आ चुकी थीं, सिर्फ आपसी ज़िद की वजह से। फिर अल्लाह ने अपनी इजाज़त से उन लोगों को हिदायत दी, जिन्होंने इख़्तिलाफ़ किया था, हक़ बात की तरफ़। और अल्लाह जिसे चाहता है, उसे सीधा रास्ता दिखाता है।  


214. क्या तुमने ये समझ रखा है कि तुम जन्नत में दाखिल हो जाओगे, जबकि अभी तुम पर वह हालात नहीं आए, जो तुमसे पहले लोगों पर आए थे? उन्हें तंगदस्ती और तकलीफ पहुंची और वे हिला दिए गए, यहां तक कि रसूल और उसके साथ ईमान लाने वाले लोग कहने लगे, "अल्लाह की मदद कब आएगी?" सुन लो, बेशक अल्लाह की मदद करीब है।  


215. (लोग) तुमसे पूछते हैं कि वे क्या खर्च करें? कहो, "जो माल तुम खर्च करो, वह माँ-बाप, करीबियों, यतीमों, मसाकीन और मुसाफिरों के लिए हो।" और जो भलाई तुम करोगे, अल्लाह उसे खूब जानता है।  


216. तुम पर जिहाद फ़र्ज़ किया गया है, हालांकि वह तुम्हें नापसंद है। और हो सकता है कि तुम्हें कोई चीज़ नापसंद हो, जबकि वह तुम्हारे लिए भलाई हो, और हो सकता है कि तुम किसी चीज़ को पसंद करो, जबकि वह तुम्हारे लिए बुराई हो। और अल्लाह जानता है, और तुम नहीं जानते।  


217. लोग तुमसे हराम महीनों में जंग करने के बारे में पूछते हैं। कहो, "उसमें लड़ना बड़ा (गुनाह) है।" और अल्लाह के रास्ते से रोकना, और उसमें कुफ़्र करना, और मस्जिद-ए-हराम (काबा) से रोकना, और उसके रहने वालों को निकालना, अल्लाह की नज़र में इससे भी बड़ा गुनाह है। और फितना क़त्ल से भी बड़ा गुनाह है। और वे तुमसे हमेशा लड़ते रहेंगे, यहां तक कि अगर वे (अपनी कुव्वत से) कर सकें, तो तुम्हें तुम्हारे दीन से फेर दें। और तुम में से जो अपने दीन से फिरे और कुफ़्र की हालत में मर जाए, तो ऐसे लोगों के अमल दुनिया और आख़िरत में ज़ाया हो जाएंगे, और वही लोग जहन्नम वाले हैं, और वह हमेशा उसी में रहेंगे।  


218. बेशक, जो लोग ईमान लाए, और जिन्होंने हिजरत की, और अल्लाह की राह में जिहाद किया, वही अल्लाह की रहमत के उम्मीदार हैं, और अल्लाह बख्शने वाला और रहम करने वाला है।  


219. वे तुमसे शराब और जुए के बारे में पूछते हैं। कहो, "इन दोनों में बड़ा गुनाह है, और लोगों के लिए कुछ फायदे भी हैं, लेकिन इनका गुनाह उनके फायदे से बड़ा है।" और वे तुमसे पूछते हैं कि वे क्या खर्च करें? कहो, "जो तुम्हारी ज़रूरत से ज़्यादा हो।" इस तरह अल्लाह तुम्हारे लिए अपनी आयतें बयान करता है, ताकि तुम सोचो।  


220. दुनिया और आख़िरत (के मामलों) में, और वे तुमसे यतीमों के बारे में पूछते हैं। कहो, "उनके साथ भलाई करना बेहतर है, और अगर तुम उनके साथ मिल-जुलकर रहो, तो वे तुम्हारे भाई हैं। और अल्लाह फसाद करने वालों और भलाई करने वालों को जानता है। और अगर अल्लाह चाहता, तो तुम्हें मुश्किल में डाल देता।" बेशक, अल्लाह ग़ालिब और हिकमत वाला है।  


221. और (मुसलमान मर्दों) मुशरिक (मूर्तिपूजक) औरतों से निकाह न करो, जब तक वे ईमान न ले आएं। और एक ईमानदार लौंडी एक मुशरिक औरत से बेहतर है, चाहे वह तुम्हें कैसी भी अच्छी क्यों न लगे। और न ही (मुसलमान औरतों को) मुशरिक मर्दों से निकाह करने दो, जब तक वे ईमान न ले आएं। और एक ईमानदार गुलाम एक मुशरिक मर्द से बेहतर है, चाहे वह तुम्हें अच्छा लगे। ये लोग (तुम्हें) जहन्नम की तरफ बुलाते हैं, और अल्लाह अपने हुक्म से जन्नत और बख्शिश की तरफ बुलाता है, और अपनी आयतों को लोगों के लिए बयान करता है, ताकि वे समझें।  


222. और वे तुमसे हायज़ (मासिक धर्म) के बारे में पूछते हैं। कहो, "वह (एक तरह की) गंदगी है, तो हायज़ के दिनों में औरतों से अलग रहो और जब तक वे पाक न हो जाएं, उनके करीब न जाओ। फिर जब वे पाक हो जाएं, तो उनके पास आओ, जहां से अल्लाह ने तुम्हें हुक्म दिया है।" बेशक, अल्लाह तौबा करने वालों को और पाक रहने वालों को पसंद करता है।  


223. तुम्हारी बीवियां तुम्हारी खेती हैं, तो अपनी खेती में जिस तरह चाहो आओ, और अपने लिए (अख़िरत की) भलाई हासिल करो, और अल्लाह से डरो, और जान लो कि तुम उसी से मिलोगे। और ईमान वालों को (इस बात की) ख़ुशखबरी दे दो।  


224. और अल्लाह के नाम को अपनी कसमों का बहाना न बनाओ कि तुम भलाई न करो, और परहेज़गारी न अपनाओ, और लोगों के दर्मियान सुलह न कराओ। और अल्लाह सुनने वाला और जानने वाला है।  


225. अल्लाह तुम्हारी बेमकसद कसमों पर तुम्हें नहीं पकड़ता, लेकिन वह तुम्हें उन कसमों पर पकड़ता है जो तुम दिल से करते हो। और अल्लाह बख्शने वाला और रहम करने वाला है।  


226. जो लोग अपनी बीवियों से इलाअ (जुदा रहने) की कसम खा लेते हैं, उनके लिए चार महीने की मोहलत है। फिर अगर वे रुख बदल लें, तो अल्लाह बेशक बख्शने वाला और रहम करने वाला है।  


227. और अगर वे तलाक़ का इरादा कर लें, तो बेशक अल्लाह सुनने वाला और जानने वाला है।  


228. और तलाक़शुदा औरतें तीन हायज़ तक अपने आपको रोके रखें। और अगर वे अल्लाह और आख़िरत के दिन पर ईमान रखती हैं, तो उनके लिए जायज़ नहीं कि अल्लाह ने उनके रहम (गर्भ) में जो कुछ पैदा किया हो, उसे छिपाएं। और उनके शौहरों को (रिवाज के मुताबिक) उनका लौटाने का ज्यादा हक़ है, अगर वे सुलह करना चाहें। और औरतों का मर्दों पर वैसा ही हक़ है, जैसा मर्दों का औरतों पर है, लेकिन मर्दों को उन पर एक दर्जा (फ़ज़ीलत का) हासिल है। और अल्लाह ग़ालिब और हिकमत वाला है।  


229. तलाक़ (दो बार है) फिर या तो अच्छे तरीके से रोकना है या भले तरीके से छोड़ देना। और तुम्हारे लिए जायज़ नहीं कि जो कुछ तुमने उन्हें दिया है, उसमें से कुछ वापस लो, सिवाय इसके कि दोनों को यह डर हो कि वे अल्लाह की हदें क़ायम न रख सकेंगे। फिर अगर तुम्हें यह डर हो कि वे दोनों अल्लाह की हदें क़ायम न रख सकेंगे, तो दोनों के लिए कोई गुनाह नहीं कि औरत कुछ फिद्या दे (और मर्द उसे तलाक़ दे दे)। ये अल्लाह की हदें हैं, तो इनसे आगे न बढ़ो, और जो अल्लाह की हदों से आगे बढ़े, तो वही लोग ज़ालिम हैं।  


230. फिर अगर उसने (तीसरी बार) तलाक़ दे दी, तो अब वह औरत उसके लिए हलाल नहीं, जब तक वह किसी दूसरे मर्द से निकाह न कर ले। फिर अगर वह (दूसरा शौहर) उसे तलाक़ दे दे, तो उनके लिए कोई गुनाह नहीं कि वे दोनों फिर से एक-दूसरे की तरफ़ लौट आएं, अगर वे समझते हैं कि अल्लाह की हदों को क़ायम रख सकेंगे। और ये अल्लाह की हदें हैं, जिन्हें वह उन लोगों के लिए बयान करता है जो समझते हैं।  


231. और जब तुम औरतों को तलाक़ दो, और वे अपनी इद्दत पूरी करने के करीब हों, तो उन्हें या तो भले तरीके से रोक लो, या भले तरीके से छोड़ दो। और उन्हें नुक्सान पहुंचाने के लिए न रोको, ताकि तुम उन पर ज़ुल्म करो। और जो ऐसा करे, वह खुद अपने ऊपर ज़ुल्म करता है। और अल्लाह की आयतों का मज़ाक न बनाओ, और अल्लाह की दी हुई नेमत और उसकी किताब और हिकमत का ज़िक्र करो, जो उसने तुम्हें नसीहत के लिए दी है। और अल्लाह से डरो, और जान लो कि अल्लाह हर चीज़ को जानने वाला है।  


232. और जब तुम औरतों को तलाक़ दो, और वे अपनी इद्दत पूरी कर लें, तो उन्हें उनके शौहरों से निकाह करने से न रोको, जब वे भले तरीके से आपस में राज़ी हों। जो कोई तुम में से अल्लाह और आख़िरत के दिन पर ईमान रखता है, उसे इससे नसीहत दी जाती है। ये तुम्हारे लिए ज्यादा पाक है और ज्यादा साफ है। और अल्लाह जानता है, और तुम नहीं जानते।  


233. और माएं अपने बच्चों को पूरे दो साल तक दूध पिलाएं, ये उसके लिए है, जो (इस मुद्दत तक) दूध पिलाने को पूरा करना चाहे। और जिस पर बच्चे का पैदा होना है, उस पर (मां का) खाना और कपड़ा देना रिवाज के मुताबिक़ है। किसी को उसकी ताक़त से ज्यादा तकलीफ न दी जाए। और न तो मां को उसके बच्चे की वजह से नुक्सान पहुंचाया जाए, और न बाप को उसके बच्चे की वजह से। और वारिस पर भी इसी तरह (जिम्मेदारी है)। फिर अगर दोनों आपस की सलाह से और आपसी राज़ी-मंदी से बच्चे का दूध छुड़ाना चाहें, तो उन पर कोई गुनाह नहीं। और अगर तुम अपनी औलाद को दूध पिलवाना चाहो, तो तुम्हारे लिए भी कोई गुनाह नहीं, जब तुम वह (उज्र) दे दो, जो भले तरीके से तय किया गया हो। और अल्लाह से डरो, और जान लो कि अल्लाह तुम्हारे अमल को देख रहा है।  


234. और जो लोग तुम में से मर जाएं, और अपनी बीवियां छोड़ जाएं, तो वे अपने आपको चार महीने दस दिन तक रोके रखें। फिर जब वे अपनी इद्दत पूरी कर लें, तो जो कुछ वे अपने हक़ में भले तरीके से करें, उसमें तुम पर कोई गुनाह नहीं। और अल्लाह तुम्हारे कामों से ख़बरदार है।  


235. और अगर तुम ऐसी औरतों से निकाह करने का इरादा इद्दत के दौरान ज़ाहिर करो, या अपने दिल में छिपाए रखो, तो तुम पर कोई गुनाह नहीं। अल्लाह जानता है कि तुम उन्हें याद करोगे, लेकिन उनसे भले तरीके से कोई बात न करो, और पक्का इरादा न करो, जब तक कि इद्दत पूरी न हो जाए। और जान लो कि अल्लाह तुम्हारे दिलों की बात जानता है, तो उससे डरो, और जान लो कि अल्लाह बख्शने वाला और बहुत बर्दाश्त करने वाला है।  


236. तुम पर कोई गुनाह नहीं, अगर तुम औरतों को उस वक्त तलाक़ दे दो, जब तुमने उन्हें छुआ न हो, और न ही उनका मेहर तय किया हो। लेकिन उन्हें कुछ देना होगा, रिवाज के मुताबिक। अमीर अपनी हैसियत के मुताबिक और ग़रीब अपनी हैसियत के मुताबिक़, ये हक़ भले लोगों पर है।  


237. और अगर तुमने उनका मेहर तय कर लिया हो, और फिर उन्हें छूने से पहले तलाक़ दे दो, तो तयशुदा मेहर का आधा देना होगा, सिवाय इसके कि वे खुद माफ़ कर दें, या वह शख्स माफ़ कर दे, जिसके हाथ में निकाह की गिरह (अधिकार) है। और अगर तुम माफ़ कर दो, तो यह परहेज़गारी के ज्यादा करीब है। और आपस में भलाई करना न भूलो। बेशक, अल्लाह तुम्हारे कामों को देख रहा है।  


238. अपनी नमाज़ों की, और बीच वाली नमाज़ की हिफ़ाज़

त करो, और अल्लाह के सामने आजिज़ी से खड़े हो।  


239. फिर अगर तुम डर में हो, तो चलते-चलते या सवारी पर (नमाज़ पढ़ लो)। फिर जब तुम अमन में हो जाओ, तो अल्लाह को उसी तरह याद करो, जिस तरह उसने तुम्हें वह सिखाया, जो तुम नहीं जानते थे।  


240. और तुम में से जो लोग मर जाएं और अपनी बीवियां छोड़ जाएं, उन्हें अपनी बीवियों के लिए एक साल तक का खर्च और घर से न निकालने की वसीयत करनी चाहिए। फिर अगर वे खुद निकल जाएं, तो जो कुछ वे अपने हक़ में भले तरीके से करें, उस पर तुम पर कोई गुनाह नहीं। और अल्लाह ग़ालिब और हिकमत वाला है।  


241. और तलाक़शुदा औरतों के लिए भी भले तरीके से खर्च देना चाहिए, यह परहेज़गार लोगों पर हक़ है।  


242. इसी तरह अल्लाह तुम्हारे लिए अपनी आयतें बयान करता है, ताकि तुम समझो।  


243. क्या तुमने उन लोगों को नहीं देखा, जो हज़ारों की तादाद में अपने घरों से मौत के डर से निकल गए थे? फिर अल्लाह ने उनसे कहा, "मरो," फिर उन्हें ज़िंदा किया। बेशक, अल्लाह लोगों पर बड़ा फ़ज़ल करने वाला है, लेकिन अक्सर लोग शुक्र नहीं करते।  


244. और अल्लाह के रास्ते में जिहाद करो और जान लो कि अल्लाह सब कुछ सुनने वाला और जानने वाला है।  


245. कौन है जो अल्लाह को अच्छा कर्ज़ दे, फिर वह उसे कई गुना बढ़ाकर लौटाए? और अल्लाह ही रोज़ी को तंग करता है और फैलाता है, और उसकी तरफ़ लौटना है।  


246. क्या तुमने बनी इस्राईल के उन सरदारों को नहीं देखा, जो मूसा के बाद थे? जब उन्होंने अपने नबी से कहा, "हमारे लिए एक बादशाह मुक़र्रर कर दो, ताकि हम अल्लाह के रास्ते में जिहाद करें।" उसने कहा, "कहीं ऐसा तो नहीं कि जब तुम पर जिहाद फ़र्ज़ किया जाए, तो तुम न लड़ो?" उन्होंने कहा, "हम क्यों न लड़ें, जबकि हमें अपने घरों और बच्चों से निकाल दिया गया है?" फिर जब उन पर जिहाद फ़र्ज़ किया गया, तो उनमें से कुछ के सिवा सबने मुंह मोड़ लिया, और अल्लाह ज़ालिमों को जानता है।  


247. और उनके नबी ने उनसे कहा, "बेशक, अल्लाह ने तालूत को तुम्हारा बादशाह मुक़र्रर किया है।" उन्होंने कहा, "उसके पास तो हमें हुकूमत करने का कोई हक़ नहीं, और वह मालदारी में हमसे कमतर है?" उसने कहा, "बेशक, अल्लाह ने उसे तुम पर बरतरी दी है, और उसे इल्म और जिस्म में फरावानी दी है। और अल्लाह अपनी हुकूमत जिसे चाहता है, देता है। और अल्लाह बड़ी वुसअत (सामर्थ्य) वाला और जानने वाला है।"  


248. और उनके नबी ने उनसे कहा, "उसकी बादशाहत की निशानी यह है कि तुम्हारे पास वह ताबूत (संदूक़) आ जाएगा, जिसमें तुम्हारे रब की तरफ से सकीनत (सुकून) है, और कुछ बची हुई चीज़ें हैं, जो मूसा और हारून के घराने ने छोड़ी थीं। उसे फरिश्ते उठाए हुए होंगे। बेशक, इसमें तुम्हारे लिए बड़ी निशानी है, अगर तुम ईमान रखते हो।"  


249. फिर जब तालूत अपनी फ़ौज के साथ चला, तो उसने कहा, "अल्लाह तुम्हें एक नहर के ज़रिए आज़माने वाला है। फिर जो कोई उसमें से पिएगा, वह मुझसे नहीं है, और जो उसे न चखे, वह मुझसे है, सिवाय इसके कि कोई अपने हाथ से थोड़ा-सा पानी ले ले।" फिर उनमें से थोड़े लोगों के सिवा सबने उससे पी लिया। फिर जब वह और ईमान वाले लोग नहर पार कर गए, तो कहने लगे, "आज हममें जालूत और उसकी फ़ौज से लड़ने की ताक़त नहीं।" जो लोग समझते थे कि उन्हें अल्लाह से मिलना है, उन्होंने कहा, "कई बार छोटी जमाअत बड़ी जमाअत पर अल्लाह के हुक्म से ग़ालिब आ गई है, और अल्लाह सब्र करने वालों के साथ है।"  


250. और जब वे जालूत और उसकी फ़ौज के सामने आए, तो उन्होंने दुआ की, "ऐ हमारे रब, हम पर सब्र उंडेल दे, और हमारे कदमों को जमाए रख, और काफिरों के मुकाबले में हमारी मदद कर।"  


251. फिर अल्लाह के हुक्म से उन्होंने उन्हें शिकस्त दी, और दाऊद ने जालूत को क़त्ल कर दिया। और अल्लाह ने उसे बादशाहत और हिकमत अता की, और उसे जो चाहा, सिखाया। और अगर अल्लाह लोगों को एक-दूसरे के जरिए न रोकता, तो धरती में फसाद फैल जाता, लेकिन अल्लाह दुनिया वालों पर बड़ा फ़ज़ल करने वाला है।  


252. ये अल्लाह की आयतें हैं, जिन्हें हम तुम्हें सचाई के साथ सुनाते हैं, और बेशक तुम रसूलों में से हो।  


253. ये रसूल हैं, जिनमें से हमने कुछ को कुछ पर फज़ीलत दी है। इनमें से कुछ ऐसे हैं, जिनसे अल्लाह ने बातें कीं, और कुछ के दर्जे बुलंद किए। और हमने मरयम के बेटे ईसा को खुली निशानियां दीं, और रूह-ए-कुद्स से उनकी मदद की। और अगर अल्लाह चाहता, तो उनके बाद वाले लोग आपस में न लड़ते, जबकि उनके पास खुली निशानियां आ चुकी थीं, लेकिन उन्होंने इख़्तिलाफ़ किया। फिर कुछ तो उनमें से ईमान लाए, और कुछ काफिर हो गए। और अगर अल्लाह चाहता, तो वे आपस में न लड़ते, लेकिन अल्लाह जो चाहता है, करता है।  


254. ऐ ईमान वालों! जो कुछ हमने तुम्हें दिया है, उसमें से खर्च करो, इससे पहले कि वह दिन आए, जिसमें न कोई खरीद-फरोख्त होगी, न कोई दोस्ती, और न ही कोई सिफारिश। और काफ़िर ही ज़ालिम हैं।  


255. आयतुल-कुर्सी:

अल्लाह, उसके सिवा कोई माबूद नहीं, वही हमेशा ज़िंदा है, और सबका संभालने वाला है। उसे न ऊंघ आती है, और न नींद। जो कुछ आसमानों और ज़मीन में है, सब उसी का है। कौन है जो उसकी इजाज़त के बगैर उसकी बारगाह में सिफारिश कर सके? वह जानता है जो कुछ उनके सामने है, और जो कुछ उनके पीछे है, और वे उसके इल्म में से किसी चीज़ का भी इहाता (घेरा) नहीं कर सकते, सिवाय इसके कि वह खुद चाहे। उसकी कुर्सी आसमानों और ज़मीन को समेटे हुए है, और उसे उनकी हिफाज़त में कोई थकावट नहीं होती। और वही बुलंद है, और बड़ा है।  


256. दीन में कोई ज़बरदस्ती नहीं है। हिदायत गुमराही से साफ़ तौर पर अलग हो चुकी है। फिर जो कोई तागूत का इनकार करे और अल्लाह पर ईमान लाए, तो उसने ऐसा मज़बूत सहारा थाम लिया, जो कभी टूटने वाला नहीं। और अल्लाह सब कुछ सुनने वाला और जानने वाला है।  


257. अल्लाह ईमान लाने वालों का दोस्त है, वह उन्हें अंधेरों से निकालकर रोशनी में लाता है। और जो लोग काफिर हैं, उनके दोस्त तागूत (झूठे माबूद) हैं, वे उन्हें रोशनी से निकालकर अंधेरों में ले जाते हैं। यही लोग जहन्नम वाले हैं, और वे उसमें हमेशा रहेंगे।  


258. क्या तुमने उस शख्स को नहीं देखा, जिसने इब्राहीम से उसके रब के बारे में झगड़ा किया, इसलिए कि अल्लाह ने उसे बादशाहत दी थी? जब इब्राहीम ने कहा, "मेरा रब वह है, जो ज़िंदा करता है और मारता है," उसने कहा, "मैं भी ज़िंदा करता हूं और मारता हूं।" इब्राहीम ने कहा, "अल्लाह सूरज को मशरिक से निकालता है, तू उसे मग़रिब से निकाल ला।" फिर वह काफ़िर हक्का-बक्का रह गया, और अल्लाह ज़ालिमों को हिदायत नहीं देता।  


259. या उस शख्स की तरह, जो एक बस्ती के पास से गुज़रा, और वह बस्ती अपनी छतों पर गिरी पड़ी थी। उसने कहा, "अल्लाह इसके मरने के बाद इसे कैसे ज़िंदा करेगा?" तो अल्लाह ने उसे सौ साल तक मौत की नींद सुला दिया, फिर उसे ज़िंदा किया। उसने पूछा, "तुम यहां कितनी देर रहे?" उसने कहा, "मैं एक दिन या एक दिन से कम रहा हूं।" (अल्लाह ने) कहा, "बल्कि तुम सौ साल रहे हो, तो अपने खाने और पीने की चीजों को देखो, वे अभी तक खराब नहीं हुईं, और अपने गधे को देखो (जो मर गया है)। और (यह इसलिए किया गया है) ताकि हम तुम्हें लोगों के लिए निशानी बना दें। और अब (उस गधे की) हड्डियों को देखो, कि हम उन्हें कैसे जोड़ते हैं, फिर उन्हें गोश्त पहनाते हैं।" जब यह सब साफ़ हो गया, तो उसने कहा, "अब मुझे मालूम हो गया कि बेशक अल्लाह हर चीज़ पर क़ादिर है।"  


260. और (याद करो) जब इब्राहीम ने कहा, "ऐ मेरे रब, मुझे दिखा कि तू मुर्दों को कैसे ज़िंदा करता है।" (अल्लाह ने) कहा, "क्या तुम ईमान नहीं रखते?" उसने कहा, "क्यों नहीं, लेकिन (मैं यह) इसलिए (पूछ रहा हूं) ताकि मेरे दिल को इत्मिनान हो जाए।" (अल्लाह ने) कहा, "अच्छा, तो चार परिंदे लो, और उन्हें अपने पास लाकर टुकड़े-टुकड़े कर दो, फिर हर पहाड़ पर उनका एक-एक टुकड़ा रख दो। फिर उन्हें बुलाओ, वे जल्दी से तुम्हारे पास आ जाएंगे। और जान लो कि अल्लाह ग़ालिब और हिकमत वाला है।"  


261. जो लोग अल्लाह के रास्ते में अपना माल खर्च करते हैं, उनकी मिसाल उस बीज की तरह है, जिसमें से सात बालियां निकलें, और हर बाल में सौ दाने हों। और अल्लाह जिसे चाहता है, उसे कई गुना बढ़ा देता है। और अल्लाह बड़ी वुसअत (सामर्थ्य) वाला और जानने वाला है।  


262. जो लोग अपना माल अल्लाह के रास्ते में खर्च करते हैं, और उसके बाद न तो एहसान जताते हैं, और न ही (लोगों को) तकलीफ देते हैं, उनका अज्र उनके रब के पास है। और उन्हें न कोई डर होगा और न ही वे ग़मगीन होंगे।  


263. भली बात कहना और माफ़ कर देना, उस सदक़े से बेहतर है, जिसके बाद तकलीफ दी जाए। और अल्लाह बेनियाज़ और बर्दाश्त करने वाला है।  


264. ऐ ईमान वालों, अपने सदक़ात को एहसान जताकर और तकलीफ देकर उस शख्स की तरह बरबाद न करो, जो अपना माल लोगों को दिखाने के लिए खर्च करता है, और न तो अल्लाह पर ईमान रखता है और न आख़िरत के दिन पर। उसकी मिसाल उस चिकनी चट्टान की तरह है, जिस पर मिट्टी पड़ी हो, फिर उस पर जोरदार बारिश पड़े और उसे साफ़ कर दे। वे अपने किए हुए किसी भी काम से कुछ हासिल नहीं कर सकेंगे। और अल्लाह काफिर लोगों को हिदायत नहीं देता।  


265. और जो लोग अपना माल अल्लाह की रज़ा हासिल करने के इरादे से और अपने दिल को मजबूत रखने के लिए खर्च करते हैं, उनकी मिसाल उस बाग की तरह है, जो ऊंची जगह पर हो, उस पर जोरदार बारिश पड़े और वह दोगुना फल दे। फिर अगर उस पर जोरदार बारिश न हो, तो हल्की सी बूंदाबांदी ही काफी हो। और जो कुछ तुम करते हो, अल्लाह उसे देख रहा है।  


266. क्या तुममें से कोई यह चाहता है कि उसका एक बाग हो, जिसमें खजूर और अंगूर हों, और उसके नीचे नहरें बह रही हों, और उसमें हर किस्म के फल हों, और वह बुढ़ापे की उम्र में हो, और उसके बच्चे अभी छोटे हों, फिर उस पर एक आग की लपट आ पड़े और वह जलकर खाक हो जाए? इस तरह अल्लाह तुम्हारे लिए अपनी आयतें बयान करता है, ताकि तुम सोचो।  


267. ऐ ईमान वालों, अपनी कमाई में से और उन चीजों में से जो हमने तुम्हारे लिए ज़मीन से निकाली हैं, भली चीजें खर्च करो, और वह घटिया चीज़ देने का इरादा न करो, जिसे अगर तुम्हें दी जाए, तो तुम उसे लेने से गुरेज़ करो, सिवाय इसके कि तुम आंखें मूंद लो। और जान लो कि अल्लाह बेनियाज़ और लायक-ए-हम्द (प्रशंसा के काबिल) है।  


268. शैतान तुम्हें तंगी का डर दिखाता है और बेहयाई का हुक्म देता है, और अल्लाह तुम्हें अपनी बख्शिश और फज़ल का वादा देता है। और अल्लाह बड़ी वुसअत (सामर्थ्य) वाला और जानने वाला है।  


269. वह जिसे चाहता है, हिकमत अता करता है, और जिसे हिकमत दी गई, उसे बहुत बड़ी भलाई दी गई। और समझने वाले ही नसीहत हासिल करते हैं।  


270. और जो कुछ तुमने खर्च किया, या जो कुछ तुमने मन्नत मानी, अल्लाह उसे जानता है। और ज़ालिमों के लिए कोई मददगार नहीं है।  


271. अगर तुम खुले तौर पर सदक़े दो, तो यह भी अच्छा है, और अगर उन्हें छिपा कर और ग़रीबों को दो, तो यह तुम्हारे लिए ज्यादा बेहतर है, और (अल्लाह) तुम्हारे कुछ गुनाहों को माफ़ कर देगा। और जो कुछ तुम करते हो, अल्लाह उससे ख़बरदार है।  


272. उन्हें हिदायत देना तुम्हारा काम नहीं, बल्कि अल्लाह जिसे चाहता है, हिदायत देता है। और जो भी तुम भलाई में से खर्च करते हो, वह तुम्हारे अपने लिए है। और तुम सिर्फ अल्लाह की रज़ा पाने के लिए खर्च करते हो। और जो कुछ भी तुम भलाई में से खर्च करोगे, तुम्हें उसका पूरा-पूरा बदला मिलेगा, और तुम पर ज़ुल्म नहीं किया जाएगा।  


273. (खर्च करो) खासकर उन ग़रीबों पर जो अल्लाह के रास्ते में रोक दिए गए हैं, और वे ज़मीन में चल-फिर नहीं सकते। जाहिल आदमी उन्हें उनकी परहेज़गारी के कारण मालदार समझता है, तुम उन्हें उनकी पहचान से जान सकते हो। वे लोगों से चिपक कर सवाल नहीं करते। और जो कुछ तुम भलाई में से खर्च करोगे, अल्लाह उसे ज़रूर जानता है।

  

274. जो लोग अपना माल रात और दिन, छिपाकर और खुले तौर पर खर्च करते हैं, उनका अज्र उनके रब के पास है, और उन्हें न कोई डर होगा और न वे ग़मगीन होंगे।  


275. जो लोग सूद खाते हैं, वे (क़ब्र से) इस तरह उठेंगे, जैसे वह शख्स उठता है, जिसे शैतान ने छूकर पागल कर दिया हो। यह इसलिए कि उन्होंने कहा, "सूद भी तो व्यापार की तरह है।" हालाँकि, अल्लाह ने व्यापार को हलाल किया है और सूद को हराम किया है। फिर जिसे उसके रब की तरफ से नसीहत पहुंची और वह (सूद से) रुक गया, तो जो कुछ पहले हो चुका, वह उसका है, और उसका मामला अल्लाह के सुपुर्द है। लेकिन जो फिर भी (सूद की तरफ़) लौटे, तो वही लोग जहन्नम वाले हैं, और वे उसमें हमेशा रहेंगे।  


276. अल्लाह सूद को मिटाता है और सदक़ात को बढ़ाता है। और अल्लाह किसी नाशुक्रे और गुनाहगार को पसंद नहीं करता।  


277. बेशक, जो लोग ईमान लाए, और अच्छे अमल किए, और नमाज़ क़ायम की, और ज़कात दी, उनके लिए उनके रब के पास उनका अज्र है, और उन्हें न कोई डर होगा, और न वे ग़मगीन होंगे।  


278. ऐ ईमान लाने वालों! अल्लाह से डरते रहो, और अगर तुम ईमान वाले हो, तो जो सूद बाक़ी रह गया है, उसे छोड़ दो।  

279. फिर अगर तुम ऐसा नहीं करते, तो अल्लाह और उसके रसूल से जंग के लिए तैयार हो जाओ। और अगर तुम तौबा कर लो, तो तुम्हारा मूल धन तुम्हारा ही है। न तुम ज़ुल्म करो और न तुम पर ज़ुल्म किया जाए।  


280. और अगर (कर्ज़दार) तंगी में हो, तो उसे राहत देना चाहिए, यहाँ तक कि वह आसानी से अदा कर सके। और अगर तुम माफ़ कर दो, तो यह तुम्हारे लिए बेहतर है, अगर तुम समझो।  


281. और उस दिन से डरो, जब तुम अल्लाह की तरफ़ लौटाए जाओगे, फिर हर शख्स को उसके किए हुए का पूरा बदला दिया जाएगा, और उन पर ज़ुल्म नहीं किया जाएगा।  


282. ऐ ईमान वालों! जब तुम आपस में किसी निश्चित अवधि के लिए कर्ज़ का लेन-देन करो, तो उसे लिख लिया करो। और एक लेखक को चाहिए कि वह तुम्हारे बीच न्यायपूर्वक लिखे। और जो लेखक है, उसे चाहिए कि लिखने से इंकार न करे, जैसा कि अल्लाह ने उसे सिखाया है, उसे लिखना चाहिए। और वह (कर्ज़दार) लिखाए, जिस पर हक़ है, और अल्लाह से डरे, जो उसका रब है, और उसमें कोई कमी न करे। फिर अगर वह, जिस पर हक़ है, नादान हो, या कमजोर हो, या खुद लिखाने की स्थिति में न हो, तो उसका वली (सामर्थ्यवान) न्यायपूर्वक लिखाए। और अपने गवाहों में से दो आदमियों को गवाह बना लो। फिर अगर दो आदमी न हों, तो एक आदमी और दो औरतें (गवाह बना लो), जिन्हें तुम गवाहों में से पसंद करते हो, ताकि अगर एक भूल जाए, तो दूसरी उसे याद दिला दे। और जब गवाह बुलाए जाएं, तो वे इंकार न करें। और तुम (कर्ज़) छोटा हो या बड़ा, उसकी मीयाद तक उसे लिखने में सुस्ती न करो। यह अल्लाह के नज़दीक सबसे ज़्यादा न्यायपूर्ण है, और गवाही को मजबूत रखने वाला है, और यह शक-शुब्हे को दूर रखने वाला है। सिवाय इसके कि वह व्यापार हो, जो तुम आपस में हाथों-हाथ कर रहे हो, तो उसे न लिखने में तुम पर कोई गुनाह नहीं। और जब तुम व्यापार करो, तो गवाह बना लो। और न तो लेखक को नुकसान पहुंचाया जाए और न गवाह को। और अगर तुम ऐसा करोगे, तो यह तुम्हारे लिए खुला गुनाह होगा। और अल्लाह से डरो। और अल्लाह तुम्हें सिखाता है, और अल्लाह हर चीज़ का जानने वाला है।  


283. और अगर तुम सफर में हो, और लेखक न पाओ, तो गिरवी रखकर कुछ लेन-देन कर लो। फिर अगर तुममें से एक दूसरे पर भरोसा करे, तो जिसे भरोसा किया गया है, उसे चाहिए कि वह उसकी अमानत अदा करे, और अपने रब से डरे। और गवाही को न छिपाओ। और जो गवाही छिपाएगा, तो उसका दिल गुनाहगार होगा। और अल्लाह तुम्हारे कामों को जानता है।  


284. जो कुछ आसमानों और ज़मीन में है, सब अल्लाह का है। और अगर तुम जो कुछ अपने दिलों में रखते हो, उसे ज़ाहिर करो या उसे छिपाओ, अल्लाह तुम्हारा हिसाब लेगा। फिर जिसे वह चाहेगा, माफ़ कर देगा, और जिसे चाहेगा, सज़ा देगा। और अल्लाह हर चीज़ पर क़ादिर है।  


285. रसूल ने उस पर ईमान लाया, जो कुछ उसके रब की तरफ़ से उसकी तरफ़ उतारा गया है, और ईमान वाले भी। हर एक ने अल्लाह पर, और उसके फरिश्तों पर, और उसकी किताबों पर, और उसके रसूलों पर ईमान लाया। हम उसके रसूलों में से किसी के बीच फर्क नहीं करते। और उन्होंने कहा, "हमने सुना और माना, ऐ हमारे रब, तेरी माफ़ी चाहते हैं, और तेरी ही तरफ लौटना है।"  


286. अल्लाह किसी जान पर उसकी ताक़त से ज्यादा बोझ नहीं डालता। जो कुछ उसने कमाया है, वह उसके लिए है, और जो कुछ उसने कमाया है, वह उसके खिलाफ़ है। ऐ हमारे रब, अगर हम भूल जाएं या गलती करें, तो हमारी पकड़ न कर। ऐ हमारे रब, हम पर ऐसा बोझ न डाल, जैसा तूने हमसे पहले वालों पर डाला था। ऐ हमारे रब, और हम पर वह बोझ न डाल, जिसे उठाने की हमें ताक़त न हो। और हमें माफ़ कर दे, और हमें बख्श दे, और हम पर रहम कर। तू ही हमारा मालिक है, तो हमें काफिरों के मुकाबले में मदद दे।


सूरह अल-बक़रह (सूरह 2) की 286 आयतें का तर्जुमा पूरा हुआ।


सूरह अल-इमरान (सूरह 3)